जज्बे को सलाम- पिता की साइकिल दुकान पर बनाता था पंचर लेकिन इच्छाशक्ति ने बनाया IAS

जज्बे को सलाम- पिता की साइकिल दुकान पर बनाता था पंचर लेकिन इच्छाशक्ति ने बनाया IAS

New Delhi : आज हम आपको ऐसे आईएएस अधिकारी की प्रेरणादायी कहानी बताने जा रहे हैं जिसने अपने सपनों को इतनी अहमियत दी कि उन सपनों के आगे उसने किसी भी समस्या से समझौता नहीं किया। इस आईएएस अधिकारी ने अपने पिता की साइकिल की दुकान पर पंक्चर बनाये, खुद पढ़ते हुए ट्यूशन पढ़ाकर पढ़ाई का खर्चा निकाला और जरूरत पड़ी तो सगे-संबंधियों से आर्थिक मदद भी मांगी लेकिन सपनों से समझौता नहीं किया।

इनका नाम है वरुण बरनवाल। ये महाराष्ट्र के पालघर के रहने वाले हैं और आज गुजरात में डिप्टी कलेक्टर के पद पर तैनात हैं। वरुण ने साल 2013 की आईएएस परीक्षा में 26वां स्थान प्राप्त किया था। आज वरुण अपने पूरे जिले के लिए तो एक मिसाल हैं ही साथ ही वे आईएएस परीक्षा की तैयारी करने वाले हर विद्यार्थी के लिये प्रेरणास्त्रोत हैं। लेकिन उनका अपने सपनों के लिये संघर्ष उन्हें बाकी कहानियों से अलग करता है।

वरुण का बचपन बेहद गरीबी में बीता उनके पिता की साइकिल रिपेयरिंग की दुकान थी जिससे घर का खर्चा चलता था। परिवार में पिता ही एकमात्र आयस्त्रोत थे। वरुण पढ़ने में बेहद होशियार थे वे लगभग हर कक्षा में प्रथम रहे। घर के आगे आर्थिक तंगी के चलते वरुण ने किसी तरह 10वीं पास कर ली और आगे की पढ़ाई का मन बना लिया। लेकिन उनके सपनों को बड़ा धक्का तब लगा जब इसी बीच उनके पिता इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए। जब उन्होंने 10वीं की परीक्षा दी उसके चार दिन बाद ही उनके पिता का देहांत हो गया। जिसके बाद वरुण ने हार मानकर पढ़ाई छो़ड़ दी और घर खर्च चलाने के लिए अपने पिता की साइकिल रिपेयरिंग की दुकान पर पंचर बनाने लगे।

लेकिन तभी उसके कुछ दिनों बाद उनका दसवीं कक्षा का रिजल्ट घोषित हुआ जिसमें वरुण ने टॉप किया था। उनकी किस्मत ने थोड़ा साथ दिया और उनके इस हाल की खबर उस डॉक्टर को लगी जिन्होंने उनके पिता का इलाज किया था। डॉक्टर ने ये देख कर उन्हें आगे पढ़ने को कहा और आगे की फीस भरी। वरुण खुद को एक बड़ा किस्मत वाला मानते हैं। आज भी जब वो किसी प्रोग्राम में बोल रहे होते हैं तो इस बात का जिक्र करते हैं कि मैंने कभी 1 रुपये भी अपनी पढ़ाई पर खर्च नहीं किया कोई न कोई मेरी किताबें, फॉर्म, फीस भर दिया करता था।

मेरी शुरुआती फीस तो डॉक्टर ने भर दी, लेकिन इसके बाद टेंशन ये थी स्कूल की हर महीने की फीस कैसे दी जाएगी। जिसके बाद ‘मैंने सोच लिया अच्छे से पढ़ाई करूंगा और फिर स्कूल के प्रिंसिपल से रिक्वेस्ट करूंगा कि मेरी फीस माफ कर दें’. और हुआ भी यही। घर की आर्थिक स्थिति देखते हुए उनकी दो साल की पूरी फीस उनके टीचर ने दी। इसके बाद उनकी पढ़ाई स्कॉलरशिप और ट्यूशन के पैसे से चलती रही और बिना कोचिंग लिए ही उन्होंने आइएएस की परीक्षा पास की।

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