नीतीशजी हैप्पी बर्थडे, जानिए वैद्यजी के ‘मुन्ना’ ने कैसे तय किया बिहार के सुशासन बाबू तक का सफर
भारतीय राजनीति में अपनी बेबाक और साफ-सुथरी छवि के लिए मशहूर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आज अपना 70 वां जन्मदिन मना रहे हैं। जद यू की ओर से इसे ‘विकास दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। राजधानी पटना में इस मौके पर किताबें और मिठाइयां बंट रही हैं। लेकिन एक समय था जब नीतीश कुमार राजनीति के धुरंधर नहीं बल्कि कल्याण बिगहा वाले वैद्यजी के ‘मुन्ना’ थे। 1971 में लोहिया यूथविंग की समाजवादी युवजन सभा से शुरुआत कर वह छह बार बिहार के ऐसे मुख्यमंत्री बने जिन्हें जनता सुशासन बाबू कहकर पुकारती है। तो आइए जानते हैं कि कल्याण बिगहा वाले वैद्यजी के ‘मुन्ना’ ने कैसे तय किया सुशासन बाबू तक का सफर।

नीतीश के पिता कविराज रामलखन सिंह एक वैद्य और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनकी मां का नाम परमेश्वरी देवी था। नीतीश का परिवार खेती किसानी से जुड़ा है। वह जिस कुर्मी जाति से आते हैं उसका मुख्य काम खेती-किसानी ही माना जाता है। नीतीश कुमार ने बिहार कॉलेज से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने बिजली बोर्ड में नौकरी ज्वाइन कर ली थी। लेकिन वहां उनका मन नहीं लग रहा था। जल्द ही वो राजनीति में आ गए। राजनीति में उनके मार्गदर्शक बने जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, एसएन सिन्हा, कर्पूरी ठाकुर और वीपी सिंह जैसे नेता। नीतीश कुमार ने 1971 में लोहिया की यूथ विंग समाजवादी युवजन सभा से जुड़कर अपने सियासी कॅरियर की शुरुआत की थी।
वह 1985 में पहली बार विधायक बने। 1989 में पहली बार सांसद बनने के बाद नीतीश पांच बार लगातार जीतकर संसद पहुंचते रहे। कुल छह बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। साल 2000 में पहली बार सीएम बनने के बाद से बीच में अगर 10 महीने का वक्त छोड़ दिया जाए तो पिछले 15 सालों से नीतीश ही बिहार के सीएम हैं। नीतीश कुमार को घर में आज भी ‘मुन्ना’ नाम से पुकारा जाता रहा। शराब और सिगरेट जैसी आदतों से दूर रहने वाले नीतीश को किताबें पढ़ने का शौक रहा है। नीतीश फिल्मों के भी शौकीन रहे हैं। एक समय में उन्हें फिल्में देखना बहुत पसंद था। वह राज कपूर और वैजयंती माला की फिल्में ज़रूर देखा करते थे। 1973 में नीतीश की शादी मंजू कुमारी सिन्हा के साथ हुई थी। उनके एक बेटा निशांत है, लेकिन पत्नी अब नहीं हैं।
सुशासन बाबू की बनी पहचान
छह बार बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्भालने वाले नीतीश कुमार की पहचान सुशासन बाबू के तौर पर होती है। बिहार में लम्बे लालू राज के बाद उन्होंने शिक्षा, सड़क, महिला उत्थान, बिजली, ग्रामीण विकास, प्राइमरी हेल्थ सिस्टम में सुधार, कानून व्यवस्था में सुधार और बिहार के लोगों की आय में वृद्धि जैसे मु्द्दों पर खुद को केंद्रित किया और अपने फैसलों से जो छवि गढ़ी उसे लोगों ने सुशासन बाबू का नाम दे दिया। बिहार की राजनीति में पिछले 15 सालों से वह मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। 2014 से पहले एक दौर ऐसा भी आया जब उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना जाने लगा था।
लालू से दोस्ती और अलग होने की कहानी
बिहार में कभी नीतीश-लालू की दोस्ती के किस्से सुनाए जाते थे। उनकी जोड़ी को कभी सियासी गलियारों में ‘जय-वीरू’ का नाम दे दिया गया था। लेकिन सियासत उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए इस दोस्ती के मानये और रूप-रंग भी बदलते रहे। बताया जाता है कि लालू और नीतीश 1974 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में एक साथ कूदे थे। तब नीतीश कुमार 24 साल के थे और लालू यादव 27 साल के। नीतीश पटना यूनिवर्सिटी के बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र थे और लालू यादव पटना कॉलेज के। समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर से नीतीश खासे प्रभावित थे। उधर, लालू यादव जयप्रकाश के संपूर्ण क्रांति के नारे के साथ बिहार की राजनीति में युवा चेहरे के तौर पर उभर रहे थे। सत्ता के खिलाफ संघर्ष में दोनों ने अपनी पूरी उर्जा झोंक दी थी। बताते हैं कि तब से लेकर 1994 दोनों की दोस्ती यूं ही गाढ़ी बनी रही। लालू 1977 में लोकसभा के सदस्य बने। 1980 में लालू लोकसभा चुनाव हार गए लेकिन विधानसभा सीट से जीत गए। तब तक नीतीश कुमार लगातार दो चुनाव हार चुके थे लेकिन 1985 में लालू यादव के साथ उन्होंने भी विधानसभा में एंट्री हासिल कर ली।
अलग-अलग स्वभाव के बावजूद लम्बी चली दोस्ती
लालू और नीतीश के स्वभाव में कई भिन्नताएं हैं। दोनों कई मायनों में एक दूसरे के विपरीत हैं। नीतीश बहुत नपातुला बोलते हैं तो जो महसूस करते हैं, वो तुरंत मुंह पर बोल देते हैं। इसके अलावा दोनों की राजनीति भी एक-दूसरे से अलग है लेकिन इसके बावजूद दोनों की लम्बे समय तक निभती रही। 1988 में कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद नेता प्रतिपक्ष बनने की बारी आई तो लालू के लिए लॉबिंग नीतीश ने की। नीतीश को पता था कि आगे चलकर बिहार का मुख्यमंत्री वही बनेगा जो नेता प्रपिपक्ष होगा। नीतीश ने लालू समर्थन में 42 विधायकों को खड़ा किया। 1989 में लालू यादव बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बन गए। तब नीतीश कुमार हमेशा लालू के इर्द-गिर्द ही रहा करते थे। बताते हैं कि 1990 में लालू को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में भी नीतीश कुमार ने बड़ी भूमिका निभाई थी।
1993 में उभरे मतभेद, अलग होने लगे दोनों के रास्ते
1991 लोक सभा चुनाव में जनता दल को 31 सीटें मिलीं। लालू यादव बिहार के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी बड़े नेता के तौर पर उभरे लेकिन इसके दो साल बाद ही नीतीश और लालू के बीच मतभेद पैदा होने लगे। बताया जाता है नीतीश सरकारी नौकरियों में कथित तौर पर एक जाति को प्राथमिकता देने और ट्रांसफर-पोस्टिंग में भ्रष्टाचार से नाराज थे। अंतत: नीतीश और लालू की 20 साल पुरानी दोस्ती टूट गई। नीतीश ने बगावत करके 12 फरवरी 1994 को पटना के गांधी मैदान में ‘कुर्मी चेतना महारैली’ की। ‘भीख नहीं, हिस्सेदारी चाहिए’ का नारा दिया और खुलेआम विरोध का बिगुल बजा दिया। इस बगावत के बाद करीब 10 लाख लम्बा संघर्ष कर नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहंचे।
दो दशक बाद फिर गले मिले नीतीश-लालू
कहते हैं राजनीति संभावनाओं का खेल है। यहां कुछ भी संभव है। 19 साल बाद बिहार की राजनीति नीतीश-लालू का फिर से साथ आना भी कुछ ऐसा ही था। 2013 में नीतीश ने अपने पुराने दोस्त लालू को याद किया तो दोनों की गलबहियां करती तस्वीरें मीडिया में एक बार फिर सुर्खिया बनने लगीं। 2015 में लालू-नीतीश ने मोदी लहर के विपरीत एक-दूजे का हाथ थामा और कामयाबी हासिल की। इस बार नीतीश के मंत्रिमंडल में लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री का ओहदा मिला तो बड़े बेटे तेजप्रताप को भी स्वास्थ्य मंत्री के पद से नवाजा गया। लेकिन यह दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चल सकी। कुछ ऐसे हालात बने कि नीतीश ने राजद का साथ छोड़ एनडीए का दामन पकड़ना ज्यादा बेहतर समझा। पिछले चुनाव में वह एनडीए के घटक दल के तौर पर ही शामिल हुए और भाजपा से कम सीटें हासिल करने के बावजूद छठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। बिहार की सियासत में आज वे एक धुरंधर माने जाते हैं जिन्होंने राज्य की राजनीति को अपने इर्द-गिर्द सिमटाए रखा है।
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