कभी प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे प्रणव मुखर्जी, पढ़िए उनके राजनैतिक सफर के पुराने किस्से…

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भारतीय राजनीति की नब्ज पर गहरी पकड़ रखने वाले प्रणब मुखर्जी को एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाएगा, जो देश का प्रधानमंत्री हो सकता था, लेकिन अंतत: उनका राजनीतिक सफर राष्ट्रपति भवन तक पहुंच कर संपन्न हुआ। ‘गुदड़ी के लाल’ धरती पुत्र प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक जीवन में एक समय ऐसा भी आया था जब कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ते हुए वह इस शीर्ष पद के बहुत करीब पहुंच चुके थे, लेकिन उनकी किस्मत में देश के प्रथम नागरिक के तौर पर उनका नाम लिखा जाना लिखा था।दशकों तक जो कांग्रेस के संकटमोचक रहे और जिन्हें देश के सर्वाधिक सम्मानित राजनेताओं में शुमार किया जाता है, वैसे भारत के 13वें राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का सोमवार को यहां एक अस्पताल में निधन हो गया।

पांच दशकों तक सार्वजनिक जीवन में रहे मुखर्जी पिछले कुछ दिनों से बीमार थे। सोमवार शाम उन्होंने राजधानी दिल्ली स्थित सेना के रिसर्च एंड रेफरल अस्पताल में अंतिम सांस ली। वे 84 वर्ष के थे।

भारत के सबसे युवा वित्त मंत्री
पश्चिम बंगाल में जन्मे इस राजनीतिज्ञ के नाम कई ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धियां हैं जो उन्हें दूसरों से अलग बनाती हैं। वह चलते फिरते ‘इनसाइक्लोपीडिया थे और हर कोई उनकी याददाश्त क्षमता, तीक्ष्ण बुद्धि और मुद्दों की गहरी समझ का मुरीद था। साल 1982 में वे भारत के सबसे युवा वित्त मंत्री बने। तब वह 47 साल के थे। आगे चलकर उन्होंने विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और वित्त व वाणिज्य मंत्री के रूप में भी अपनी सेवाएं दीं। वे भारत के पहले ऐसे राष्ट्रपति थे जो इतने पदों को सुशोभित करते हुए इस शीर्ष संवैधानिक पद पर पहुंचे।

पीएम ना होते हुए भी 8 वर्षों तक लोकसभा के नेता
उन्होंने इंदिरा गांधी, पी वी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह जैसे प्रधान मंत्रियों के साथ काम किया। यही वजह थी कि दशक दर दशक वे कांग्रेस के सबसे विश्वसनीय चेहरे के रूप में उभरते चले गए। मुखर्जी भारत के एकमात्र ऐसे नेता थे जो देश के प्रधानमंत्री पद पर न रहते हुए भी 8 वर्षों तक लोकसभा के नेता रहे। वे 1980 से 1985 के बीच राज्यसभा में भी कांग्रेस पार्टी के नेता रहे।

राजनीतिक जीवन की शुरुआत
अपने उल्लेखनीय राजनीतिक सफर में उन्होंने और भी कई उपलब्धियां हासिल कीं। उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत 1969 में बांग्ला कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा सदस्य बनने से हुई। बाद में बांग्ला कांग्रेस का कांग्रेस में विलय हो गया। मुखर्जी जब 2012 में देश के राष्ट्रपति बने तो उस समय वे केंद्र सरकार के मंत्री के तौर पर कुल 39 मंत्री समूहों में से 24 का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। साल 2004 से 2012 के दौरान उन्होंने 95 मंत्री समूहों की अध्यक्षता की। राजनीतिक हलकों में मुखर्जी की पहचान आम सहमति बनाने की क्षमता रखने वाले एक ऐसे नेता के रूप में थी जिन्होंने सभी राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ विश्वास का रिश्ता कायम किया जो राष्ट्रपति पद पर उनके चयन के समय काम भी आया।

बनना चाहते थे प्रधानमंत्री, लेकिन..
उनका राजनीतिक सफर बहुत भव्य रहा जो राष्ट्रपति भवन पहुंचकर संपन्न हुआ। लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना उन्हें नसीब नहीं हुआ। हालांकि उन्होंने खुलकर इस बारे में अपनी इच्छा व्यक्त कर दी थी। अपनी किताब ”द कोअलिशन इयर्स में मुखर्जी ने माना कि मई 2004 में जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया था तब उन्होंने उम्मीद की थी कि वह पद उन्हें मिलेगा।

उन्होंने लिखा है, ”अंतत: उन्होंने (सोनिया) अपनी पसंद के रूप में डॉक्टर मनमोहन सिंह का नाम आगे किया और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। उस वक्त सभी को यही उम्मीद थी कि सोनिया गांधी के मना करने के बाद मैं ही प्रधानमंत्री के रूप में अगली पसंद बनूंगा।” मुखर्जी ने यह स्वीकार किया था कि शुरुआती दौर में उन्होंने अपने अधीन काम कर चुके मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में शामिल होने से मना कर दिया था लेकिन सोनिया गांधी के अनुरोध पर बाद में वह सहमत हुए। साल 2004 में शुरू हुए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल के उथल-पुथल के वर्षों से लेकर 25 जुलाई 2012 को राष्ट्रपति बनने तक वे सरकार के संकटमोचक बने रहे।

जड़ों को नहीं भूले
सत्ता के गलियारों में रहने के बावजूद मुखर्जी कभी अपनी जड़ों को नहीं भूले। यही वजह थी कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी दुर्गा पूजा के समय वे अपने गांव जरूर जाया करते थे। मंत्री और राष्ट्रपति रहते पारंपरिक धोती पहने पूजा करते उनकी तस्वीरें अक्सर लोगों का ध्यान आकर्षित करती थीं। साल 2015 में उनकी पत्नी शुभ्रा मुखर्जी उनका साथ छोड़ गईं। प्रणब दा के परिवार में दो पुत्र और एक पुत्री हैं। मुखर्जी के राष्ट्रपति रहते उनकी पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के दौरान अक्सर उनके साथ दिखा करती थीं। उनके पुत्र अभिजीत मुखर्जी भी सांसद बने। हालांकि पिछले चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।

2004 में पहले बार पहुंचे लोकसभा
पांच बार राज्यसभा और दो बार लोकसभा के सदस्य रहे मुखर्जी बतौर सांसद सबसे लंबी अवधि तक देश की सेवा करने वालों में शुमार थे। 1971 में बांग्ला कांग्रेस के कांग्रेस में विलय के बाद वे कांग्रेस संसदीय दल के सदस्य बने। वैसे तो उन्होंने सरकार में विभिन्न पदों को सुशोभित किया लेकिन साल 2004 में पहली बार उन्हें लोकसभा पहुंचने का सौभाग्य मिला। पश्चिम बंगाल की जंगीपुर संसदीय सीट से चुनाव जीतकर वे लोकसभा के सदस्य बने। हालांकि इससे पहले उन्हें दो बार लोकसभा चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा था। साल 1977 में मालदा और 1980 में बोलपुर संसदीय क्षेत्र से वे चुनाव हार गए थे।

23 सालों तक सीडब्ल्यूसी के सदस्य
आजादी के बाद के भारत के राजनीतिक इतिहास और शासन की गहरी जानकारी रखने वाले मुखर्जी भारत के विकास को आयाम देने वाले और इसमें बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाली एक प्रमुख शख्सियत थे। राष्ट्रपति बनने से पहले वे 23 सालों तक कांग्रेस की सर्वोच्च नीति-निर्धारण इकाई कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) के सदस्य रहे। इस दौरान वे पार्टी के लिए संकटमोचक की भूमिका भी निभाते रहे।

मनमोहन सरकार में अहम भूमिका
साल 2004 में हेनरी किसिंजर से हुई उनकी मुलाकात ने भारत और अमेरिका के बीच सामरिक समझौतों को एक नया आयाम दिया। साल 2005 में जब वे भारत के रक्षा मंत्री थे तब भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों के लिए एक नए मसौदे पर हस्ताक्षर हुए थे। साल 2004 से 2012 तक मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उन्होंने सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) और मेट्रो रेल परियोजना की स्थापना जैसे महत्वपूर्ण निर्णयों में अहम भूमिका निभाई।

जब कांग्रेस से हो गए अलग
भारतीय राजनीति में कांग्रेस के बाद के युग के एक प्रमुख शिल्पकार के रूप में उन्हें याद किया जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा और बाद में इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में बनी संयुक्त मोर्चा की सरकारों के लिए बाहरी समर्थन जुटाने में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। कांग्रेस ने भी इन सरकारों का समर्थन किया था। उनका राजनीतिक जीवन एक समर्पित कांग्रेस कार्यकर्ता का रहा। साल 1987 से 1988 तक के बीच का कालखंड ऐसा रहा जब वे पार्टी से बाहर रहे। उन्होंने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस पार्टी नाम से अलग दल बनाया, लेकिन राजीव गांधी के मनाने पर उन्होंने पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया।

आरएसएस मुख्यालय जाने पर विवाद
राष्ट्रपति के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करने के एक साल बाद 2018 में मुखर्जी के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर जाने और वहां समापन भाषण देने को लेकर खासा विवाद हुआ था। बाद में उन्हें भाजपा-नीत केंद्र सरकार द्वारा साल 2019 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ”भारत रत्न से नवाजा गया। इसे लेकर राजनीतिक हलकों में खूब चर्चा हुई।

जनता के राष्ट्रपति के रूप में पहचान
राष्ट्रपति के रूप में भी उन्होंने एक अमिट छाप छोड़ी। इस दौरान उन्होंने दया याचिकाओं पर सख्त रुख अपनाया। उनके सम्मुख 34 दया याचिकाएं आईं और इनमें से 30 को उन्होंने खारिज कर दिया। जनता के राष्ट्रपति के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुखर्जी को राष्ट्रपति भवन को जनता के निकट ले जाने के लिए उठाए गए कदमों के लिए भी याद किया जाएगा। उन्होंने जनता के लिए इसके द्वार खोले और एक संग्रहालय भी बनवाया। उनके निधन से देश ने इतिहास, अंतरराष्ट्रीय संबंधों और संसदीय प्रक्रियाओं में गहरी दिलचस्पी रखने वाला एक प्रखर बुद्धिजीवी खो दिया। इतना ही नहीं, उनके साथ ही भारत के विकास की कहानी और उसके अभ्युदय का दशकों तक गवाह रहा एक और प्रत्यक्षदर्शी हमारे बीच से चला गया।

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