महागठबंधन के लिए स्टार प्रचारक बन बिहार चुनाव में काम करेंगे कन्हैया, आखिरकार बन गयी सहमति

Bihar Assembly Elections: बिहार के बदलते राजनीतिक समीकरण में कन्हैया कुमार कितने फिट कितने अनफिट?

नई दिल्ली. बिहार विधानसभा चुनाव 2020 (Bihar Assembly Election- 2020) में सीपीआई नेता और जेएनयू (JNU) छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) की भूमिका काफी अहम होने वाली है. बिहार चुनाव में महागठबंधन के घटक दलों में कन्हैया कुमार की भूमिका को लेकर सहमति बनती दिख रही है. सीपीआई और आरजेडी में गठबंधन हो जाने का बाद इसकी संभावना और प्रबल हो गई है. सूत्र बताते हैं कि कन्हैया कुमार अब पूरे बिहार में महागठबंधन के प्रत्याशियों के लिए चुनाव प्रचार भी करेंगे. हालांकि, इस बारे में अभी तक कोई औपचारिक ऐलान नहीं हुआ है. खुद कन्हैया कुमार के बारे में कहा जा रहा है कि वह बेगूसराय के बछवाड़ा विधानसभा सीट से अपना किस्मत आजमा सकते हैं. कन्हैया कुमार 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बेगूसराय संसदीय सीट से बीजेपी उम्मीदवार गिरिराज सिंह के सामने खड़े थे. उस चुनाव में कन्हैया कुमार की करारी हार हुई थी. मौजूदा केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कन्हैया कुमार को साढ़े 4 लाख से भी बड़े अंतर से हराया था. इसके बावजूद राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कन्हैया आगामी चुनाव में गैर NDA दलों के लिए एक उम्मीद की किरण हो सकते हैं.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि लालू प्रसाद यादव की अनुपस्थिति में कन्हैया कुमार कांग्रेस, आरजेडी, सीपीआई और आरएलएसपी के महागठबंधन में एक स्टार प्रचारक की भूमिका निभा सकते हैं. कांग्रेस, आरजेडी जैसी पार्टियां विधानसभा चुनाव में कन्हैया कुमार का इस्तेमाल कैसे करेगी इसको लेकर काफी मंथन चल रहा है. इस मंथन में कांग्रेस के एक दिग्गज नेता महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. कांग्रेस सूत्रों से जानकारी पर विश्वास करें तो कन्हैया कुमार की भूमिका को लेकर बिहार कांग्रेस के एक नेता आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव से सहमति भी ले ली है. ऐसे में खासकर कांग्रेस, सीपीआई और आरएलएसपी जैसी पार्टियां कन्हैया कुमार की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है.

बिहार को करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार संजीव पांडेय कहते हैं, ‘कन्हैया कुमार हाल के वर्षों में देश के सबसे चर्चित युवा चेहरों में से एक बनकर उभरे हैं. देश के कुछ वर्गों में वह बहुत लोकप्रिय हैं. पिछले पांच सालों में गैर-बीजेपी पॉलिटिक्स में सबसे ज्यादा नाम कन्हैया कुमार का हुआ है. बीजेपी की दक्षिणपंथ की राजनीति के मुद्दों पर सबसे जायदा विरोध कन्हैया ने किया है. अल्पसंख्यकों में उनकी साख बढ़ी है, लेकिन बहुसंख्यक समुदाय में वे युवा जिनके लिए अभी बेरोजगारी से बड़ा मुदा राष्ट्रवाद है, उनके लिए कन्हैया विलेन हैं.’

पांडेय आगे कहते हैं, ‘लेकिन, बिहार में कन्हैया की सीमा निर्धारित है. वे बिहार में प्रोग्रेसिव यूथ आइकॉन से पहले भूमिहार के तौर पर देखे जाते हैं. इसके लिए बिहार का सामाजिक ताना-बाना जिम्मेवार है. राजनीतिक माहौल जिम्मेवार है. क्योंकि बिहार में आजादी के बाद से ही चुनाव में विकास और रोजगार का मुद्दा पर जाति हावी रही है. 1990 के बाद बिहार में जातीय विभाजन और तीखा हो गया है.’

पांडेय कहते हैं, ‘बिहार में सीपीआई जैसी पार्टियां जातिवाद की तीखी राजनीति के कारण हाशिए पर आ गई है. आज भी लगभग यही स्थिति है. बिहार में लालू यादव की जातिवादी राजनीति को हाशिए पर लाने में बीजेपी और जेडीयू ने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को एक तरफ रख कर गैर मुस्लिम और गैर यादव जातियों का अलग समीकरण बनाया. इसी का नतीजा है कि लालू के जातीय समीकरण पर बीजेपी-जेडीयू का यह समीकरण लगातार हावी रह रहा है. आज भी स्थिति में खास बदलाव नहीं आया है.’

ऐसे में इस बार के बिहार चुनाव में कन्हैया की काबिलियत यह देखी जाएगी कि आखिर बिहार में वे अपनी भूमिहार जाति की पहचान को पीछे कर कैसे कोरोना के दौरान बिहार की हुई दुर्दशा को मुद्दा बना पाते हैं. बेरोजगारों की फौज इस समय बिहार में मौजूद है. इन्हें जातिवाद और हिंदुत्व के प्रभाव से कन्हैया कितना निकाल पाएंगे यह समय बताएगा, क्योंकि उनके दल का भी गठबंधन उसी दलों के समूह से हो रहा है जो जातीय समीकरण के आधार पर चुनाव मैदान में उतरेगी. हांलाकि, महागठबंधन बेरोजगारी, विकास और भ्रष्टाचार मुद्दा बना रहा है, लेकिन उसे खुद भी भरोसा नहीं है कि इन मुद्दों पर वे चुनाव जीत पाएंगे.

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