‘नीतीश जी नाराज न हो जायें इसलिये अखबार वाले सच नहीं छापते’

यह बाढ़ की कहानी तो है। साथ ही अखबार और सरकार की भी कहानी है। 2008 की कोसी बाढ़ की कहानी कहते हुए नागेन्द्र सर ने बताया है कि कैसे सरकार को छोड़ कर सबको मालूम था कि तटबंध टूटने वाला है। मगर सरकार खबरों से नाराज हो जाती थी।

नागेन्द्र सर ने एक बहुत जरूरी बात कही है। नीतीश जी नाराज न हो जायें इसलिये अखबार वाले सच नहीं छापते। छुपाते हैं। ऐसे में इस तरह की घटनाएं हो जाती हैं। एक मस्ट रीड पोस्ट।

पानी पानी तो ‘उन्हें’ होना है…शहर भला क्यों हो ‘पानी-पानी’

सुबह-सुबह पटना के एक लोकल न्यूज चैनल की एक फोटो दिमाग में दर्ज हो गई है। एक जेसीबी मशीन है जो अपने क्रेन/ट्रॉली वाले हिस्से को ऊपर उठाये सड़कों पर जमा कहीं एक, दो तो कहीं तीन फिट पानी में से निकलती चली आ रही है। जेसीबी के इस क्रेन/ट्रॉली वाले हिस्से में जहां अक्सर कूड़ा, मिट्टी या कई बार हादसे में शिकार किसी गाड़ी का मलबा होता है, वहां इस बार कुछ लड़कियां हैं। जीती जागती लड़कियां। इन्हें बारिश के कारण हुए जलभराव वाले इलाके से निकालकर लाया जा रहा है, किसी सुरक्षित इलाके में पहुंचाने के लिए। गारंटी नहीं कि वह इलाका भी कितने वक़्त इन्हें सुरक्षा देगा। बिहार की राजधानी पटना में चारो ओर यही नजारा है। हर जगह पानी-पानी है…लेकिन बाढ़ नहीं आई है। इंतजाम और बेहतर किए जाएं, इसके लिए बाढ़ का इंतजार है! बढ़िया इंतजामों के लिए बाढ़ का इंतजार किया ही जाना चाहिए। ऐसा ही तो हर बार होता है। यह 2019 की सितंबर का पटना है!

कहब त लग जाई धक से… लेकिन यह शायद इसी महीने की किसी तारीख लेकिन 2008 की बात है। मैं उन दिनों ‘हिंदुस्तान’ के भागलपुर संस्करण का सम्पादक था। काम संभाले कुछ ही दिन हुए थे कि बाढ़ आ गई थी। कुछ खबरें छपी थीं, जिनसे नीतीश जी नाराज थे। नीतीश जी खबरों से प्रायः नाराज ही रहते हैं। यह तो बाढ़ आने के बाद की बात थी। नीतीश जी तो बाढ़ आने से पहले से नाराज थे। बाढ़ आने की आशंका वाली खबरों के छपने से…

मुझे काम संभाले कुछ ही दिन हुए थे। एक दिन डाक संस्करणों की फ़ाइल देख रहा था कि सहरसा संस्करण पर नजर टिक गई। यह पेज तीन था। सहरसा मतलब ख़बरों के लिहाज से वह संस्करण जिसमें कोसी वाले इलाके की खबरें कवर होती हैं। यह कोसी के तांडव वाला इलाका है।

कुसहा तटबंध या बांध इसी इलाके में है। वही कुसहा, जहां/जिसके 1984 में टूटने से बाढ़ आई थी। जो 2008 में फिर टूटने जा रहा था। कोसी नदी के किनारे के लोग सचेत हो गये थे। इलाका छोड़कर सुरक्षित ठिकानों की ओर जाने लगे थे। लेकिन सरकार और प्रशासन सचेत नहीं हुआ था। ये कभी समय से सचेत/सतर्क होते भी नहीं। उस बार भी नहीं थे। सचेत करने की कोशिश की गई तो नाराज हो गए। यह सचेत होने पर नाराज होना भी प्रशासनों की फितरत होती है शायद। शायद क्या, होती है है!

तो मैं सहरसा संस्करण के पेज तीन की बात कर रहा था। मैंने देखा की कई दिन से खबरें छप रही हैं कि कुसहा तटबंध में रिसाव हो रहा है और कोई सुनवाई नहीं हो रही है। सच तो यह था कि यह खबरें छप रही थीं तो हमारे सहरसा ब्यूरो प्रमुख नवीन निशांत को डीएम की नाराजगी का शिकार भी होना पड़ चुका था। बीते दो-तीन दिन में यह सब हो चुका था, लेकिन मुझे कुछ भी पता नहीं था। होता भी क्यों, रिपोर्टर से लेकर डेस्क तक यह रूटीन सी खबरें थीं और अखबार में यह सब तो होता ही रहता है। अखबार की मुफस्सिल डेस्क और मुफस्सिल संवाददाताओं की यह भी एक विडम्बना है। जिससे न हम बचे थे, न हमारा अखबार। यह सब तब हुआ जब हम खबरों के मामले में खुद को काफी सचेत समझते थे।

खैर, मैंने तत्काल अपने साथी नवीन निशांत को फोन किया। स्थिति की गम्भीरता का पता चला। यह इसलिए भी हो पाया क्योंकि इत्तिफाक से 1984 में कुसहा बांध टूटने से आई उसी कोसी की बाढ़ की विभीषिका का मैं किसी हद तक गवाह रहा था। तब पहली बार पटना गया ही था। ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ शुरू होना था। इस बार भी भागलपुर यानी कोसी के इलाके में आया ही था कि कुसहा फिर से टूटने पर आ चुका था। खबरें छपने लगी थीं। कुछ भी नहीं बदला था। फर्क सिर्फ इतना ही आया था कि तब भयावह बाढ़ की विभीषिका से गुजर रहे बिहार में, बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर तक बाढ़ पर राजनीति छोड़ एकसाथ खड़े हो जाने के पक्ष में मजबूती से खड़े दिखे थे, लेकिन इस बार तो सत्ता पक्ष ही आसन्न सच से मुंह चुराना चाह रहा था। सत्ता शायद सच से मुंह चुराने के लिए ही हुआ करती है। सो उस बार भी हो रहा था।

बाढ़ की आशंका या कहें कि कुसहा में रिसाव की खबरें अचानक उस संस्करण के पेज तीन से निकलकर सभी संस्करणों के पहले पन्ने पर आ चुकी थीं। नाराजगी का स्तर सहरसा और सुपौल के जिला प्रशासनों से हटकर पटना में नीतीश जी के सरकारी अमले और बंगले की ओर शिफ्ट हो चुका था। वे मानने को तय्यार ही नहीं थे कि ऐसा कुछ हो रहा है या होने की पूरी आशंका है। रोज फोन आने लगे थे। उधर से रोज नकारा जा रहा था, रिपोर्टर को मूर्ख, जाहिल, दलाल बताया जा रहा था। खबरें रोकने की बात होती थी (गोया खबरें रोकने से बाढ़ भी रुक जाएगी)। हमारी ओर से उन्हें बताया जाता था की खबरें रोकने की बात नहीं, उस इलाके में रखरखाव की बात कीजिए। मुझे याद है जब दूसरे, तीसरे या चौथे दिन ‘पानी, नदी और बाढ़ वाले मंत्री जी’ का मेरे पास दूसरी बार फोन आया था। गुस्से में बहुत कुछ कह गए थे। मैं सुनता रहा था। बता रहे थे कि जहां बांध में रिसाव और उसके चलते बांध टूटने और बाढ़ की आशंका की बात लिखवा रहे हो, वहां मैं खुद देखकर आया हूं। सब ठीक-ठाक है।
मैंने उन्हें बताया था कि मैं खुद कुछ जानकार/विशेषग्यों के साथ देखकर लौटा हूं। सब कुछ वैसा ही है, जैसा लिखा जा रहा है। उन्हें सलाह दी थी कि खबर का खंडन करने के बजाय उस जगह पर बोल्डर गिरवाते तो शायद एक बड़े खतरे से बचा जा सकता था।

दरअसल मंत्री जी अमले के साथ गए तो जरूर थे। लेकिन अमला उन्हें कुसहा की उस बंसवारी (बांसों के जंगल) से वापस ले आया था, जिसके आगे रिसाव हो रहा था। यह भी सच है कि उन्हें इस सच का पता ही नहीं था, इसलिए नाराजगी सवाभाविक थी। खैर, मंत्री जी तब भी न माने थे। जुबानी खंडन के दौर चलते रहे, रिसाव की खबरें चलती रहीं। यह सब शायद तीन या चार दिन या शायद एक-दो दिन और चला होगा। सरकार को नहीं मानना था। नहीं माना। आखिर कुसहा बांध वहीं से टूटा जहां से रिसाव की खबरें छप रही थीं। बाढ़ आई। नीतीश बोले ये ‘महाप्रलय’ है। उन्हें फिर बताया गया, ‘नीतीश जी, प्रलय कभी बताकर नहीं आती है। ये बाढ़ तो बार-बार घण्टी बजाकर आई है। आप ही नहीं सुनना चाह रहे थे।’…मुझे अच्छी तरह याद है, कुछ बिलकुल ऐसे ही शीर्षक से पेज 1 पर खबर लिखी थी। शायद टॉप बॉक्स या नीचे एंकर में छापी थी। आप खूब नाराज हुए थे…लेकिन बाढ़ तो आ चुकी थी…। कितना कुछ तबाह हुआ था, हमें भी याद है। आपको भी याद होगा। यह सब सच्चाई से मुंह मोड़ने का कुफल था। यह मुंह मोड़ना शायद सरकारों की फितरत में होता है।

इस बार जब चंद रोज की बारिश में (बिना बाढ़ के ही) पटना डूबता-उतराता दिखाई दिया तो बरबस यह सब याद आ गया। यह सब लिख भी गया। लगा कि सच से मुंह चुराया जाए तो सच विस्फोटक बनकर सामने आता ही है। उस वक़्त अमले ने आपसे सच छुपाया था। कुसहा बांध टूटा था। इस बार भी अमले ने विकास के नीचे-नीचे ‘नाली-नालों-जल निकासी बंद होने’ के सच को आपसे छुपाए रखा। इस बार आपके सपनों का शहर पटना ‘डूबा’ है। वही पटना जहां आप खुद रहते हैं। जिसके ऊपरी विकास पर इतराते फिरते हैं। (वैसे मैं भी आपके उस विकास से असहमत नही हूं। आपने काफी काम किया है लेकिन विकास की इस भाग-दौड़ में आप सच सुनना बंद कर चुके हैं, मैं बस उससे असहमत हूं। यह सच सुनना बंद करना बहुत भयावह नतीजे दिखाता है अक्सर)।

लेकिन फिर एक बात याद आई…तब (2009 में कोसी की बाढ़ तक) आप ‘वैसे’ नहीं हुए थे, वरना वो एंकर या टॉप बॉक्स लिखने की नौबत ही न आती। अब तो असहमति की एक लाइन भी छपना आपको गंवारा नहीं होता। याद रखिये, सच छुपाने से सच छुपता नहीं है। विस्फोटक जरूर हो जाता है। इत्तिफाकन बिहार की राजधानी पटना से लेकर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ, मुख्यमंत्री के गृहक्षेत्र गोरखपुर और प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी का इस वक़्त तो यही सच है। डिग्री का थोड़ा अंतर भले हो, ऊपर से लगातार होती बारिश के नीचे दिखने वाले असर से सब परेशान हैं। परेशान वैसे इसके लिए छोटा शब्द है!

अंत में एक बात और… मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक इस वक़्त लिख रहा है …पानी-पानी हुआ शहर…। लेकिन पानी में डूबने से शहर नहीं पानी-पानी (शर्मसार) हुआ करते। पानी-पानी तो शहर या शहरों को अपनी अकर्मण्यता से डुबा देने वाले सिस्टम को होना चाहिए, जो वह कभी नहीं होता।

नवरात्र की शुभकामनाएं कि अब आगे से सब शुभ हो!!!

-Nagendra Pratap

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