बाढ़ राहत के लिए कतार में है अयाची का वशंज, बिहार सरकार से भीख मांग रहा मिथिला समाज

कुमुद सिंह

मिथिला का इलाका अयाची का है। अयाची का मतलब जो याचक न हो। बिहार के मुखिया नीतीश कुमार उसी अयाची मिश्र के दलान पर गए थे, उनकी मूर्ति का अनावरण करने, लेकिन पूरा इलाका याचक बना हुआ था। कोई राहत मांग रहा है, तो कोई मुआवजा, कोई राज्य संरक्षण तो कोई राज दरबार में स्थान की लालसा में खडा है। अयाची को याचक बनाना 1935 तक असंभव दिख रहा था। यह समाज नैतिक रूप से इतना समृद्ध था कि सामाजिक नियम तोडऩे पर राजा को जाति से बाहर कर दिया था। आज बेशक सांकेतिक रूप से अयाची के गांववालों ने मुख्यमंत्री के कार्यक्रम के लिए किसी से याचना नहीं की और करीब 25 लाख रुपये खुद जमा किये हैं, लेकिन सरकार अर्थात राजा के आगे अयाची आज याचक की भूमिका में हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। जो अयाची कभी दरबार जाने को तैयार नहीं हुए..वो आज दरबार से राहत और मुआवजा पानेवाली की कतार में खडे हैं।

मैकाले के लिए भी यह तस्वीर अविश्वसनीय होगी। 1935 में यह सोचना मैकाले के लिए भी आसान नहीं था। जरा ध्यान से देखिए मैकाले ने आखिर भारतीय समाज के लिए क्या कहा था। मुगलों के शासनकाल में भारत का प्रशासन और समाज कैसा था। जब भारत में राजशाही थी, तो भारत में कितना नैतिक विवेक था। आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था कैसी थी। राजवारों ने समाज को कितना उन्नत बना कर रखा था। 1835 में मैकाले ने जिस समाज को देखा, वो समाज आज नैतिक रूप से इतना कैसे बदल गया।

1835 ही क्यों दिनेश मिश्रा की मानें तो प्रभुनाथ सिंह (1948), रामबृक्ष बेनीपुरी(1956), महाबीर राउत (1966) में बिहार विधान सभा में कहा था कि रिलीफ दे कर सरकार लोगों को भिखमंगा बना रही है, हमारे यहां ऐसे ऐसे लोग हैं जो मर जायेंगे, मगर खैरात नहीं लेंगे। लेकिन आप लोगों को रिलीफ बांटने में मज़ा आता है।

आज़ादी के इतने साल बाद तो बाढ़ की समुचित व्यवस्था कर लेनी चाहिये थी, जो आपने नहीं की। पानी के बहाव के सारे रास्ते बंद कर दिये, मगर पानी की निकासी के लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ा। यह सब कुछ कैसे हुआ…न ही अंग्रेजी शिक्षा से यह संभव हुआ न ही अंग्रेजी प्रशासन से। यह सबकुछ संभव हो पाया तटबंध, सब्सिडी और मुआवजा से…

तटबंध नहीं होता तो डूबते अयाची को याचक बनाने में थोडी मुश्किल होती…जो काम मैकाले को सौंपी गयी थी और वो न कर सका, वो 1954 में हमारे विकासवादी नेताओं ने कर दिया…दिनेश मिश्र अपनी किताब बोये पेड बबूल के में लिखते हैं- जिस चीज को पिछले सौ वर्षों से बुरा कहा जाता रहा और 1947 में बीते जमाने की चीज कह कर खारिज कर दिया गया था, उसी को सर आंखों पर बिठाना पड़ा क्योंकि यह बात देश के शीर्ष नेतृत्व (नेहरू) से आयी थी। अत: अब तटबंधों को राजनीतिज्ञ मान्यता मिल गयी। और जैसे ही तटबंधों को राज मानता मिली इंजीनियरों ने तुरंत उलटी कवायत शुरु कर दी और अपनी पूरी ताकत से तटबंधों की शान में कसीदे करना शुरु कर दिये। इस पूरे घटनाचक्र का सबसे बुरा पहलू यह था कि जिन मसलों पर फैसला इंजीनियरों को और केवल इंजीनियरों को करना था वो फैसला अब राजनीतिज्ञ करने लगे थे और इंजीनियरों ने उसकी हां में हां मिलाने का रास्ता अख्तियार कर लिया।

सत्ता की मांग पर तकनीक को तोडा मडोरा जाता है और तकनीकी समुदाय अपने आप को तकनीकी विषयों पर भी निर्णय में असहाय पाता है और चारण की भूमिका में उतर जाता है। बिलियम बिलकाक्स ने तो इन तटबंधों को राक्षसी दीवार कहा है। दिनेश मिश्र के इस विचार से स्पष्ट होता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता को असहाय बना कर रखने के लिए बांध की जरुरत नेताओं को सबसे ज्यादा थी। क्योंकि राजनीतिज्ञों के लिए जन साधारण की समस्या वचत खाते में जमा पैसों की तरह है, जिसे जब चाहा और जितना चाहा भूना लिया। खाता चालू रखने के लिए यह जरुरी है कि पूरी रकम कभी भी ना निकाली जाये।

जरा सोचिए, जो समाज आजादी से पहले श्रम के बावजूद सरकार से अनुदान लेने को तैयार नहीं था, वो आज सरकार के आगे राहत और मुआवजे के लिए प्रदर्शन कर रहा है। दो टके का आदमी भी आज उसे राहत भेज रहा है, जिसने राजा से कभी उपहार नहीं लिया। अयाची का पूरा समाज भीख मांग रहा है..

बाढ़ पीडि़तों को राहत कौन भेज रहा है। जरा गौर देखिए…इनकी औकात भी आज अयाची को भीख देने की हो गयी…कभी इस नजरिये से सोचिए तब पता चलेगा लोग राहत भेजने से कौन सी कुठा शांत कर रहे हैं। आज कौन अयाची को राहत शिविर में जगह और मुआवजा दिला देने का वादा कर रहा है..अयाची की याचिका दरबार तक बढाने की लालसा किसकी पूरी हो रही है…जो अचायी के सामने कुछ नहीं था, वही आज एक दानकर्ता बना हुआ है। हर पापी इस दान से अपने पाप को धो रहा है। अपनी कुठा को शांत कर रहा है, जो राजाओं से भीख नहीं लेता था उसे हम भीख देते हैं….।

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