बिहार की राजनीति में कूट-कूट कर भरा है परिवारवाद, कोई भी पार्टी इस से नहीं है अछूती

Patna: आजादी के बाद देश में परिवारवाद और वंशवाद को बढ़ावा देने का सबसे बड़ा आरोप कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार पर लगा लेकिन धीरे-धीरे यह वंशवाद समूचे देश भर में हावी हो गया और अब बिहार भी इससे अछूता नहीं है. डॉ. जगन्नाथ मिश्रा से लालू यादव तक और रामविलास पासवान से जीतनराम मांझी तक तमाम नेताओं और उनकी पार्टी पर यह परिवारवाद शुरू से इस कदर हावी रहा है कि पार्टी के शीर्ष पद पर या तो ये खुद या फिर इनके परिवारवालों का ही कब्जा रहा है. पार्टी के मुखिया से लेकर संगठन तक परिवार के लोगों का ही कब्जा है ये हाल केवल एक पार्टी की नहीं बल्कि सूबे की अधिकांश पार्टियों के करीब एक जैसे ही हालात हैं.

कुछ को छोड़ दें तो बिहार की राजनीति में आज कोई भी पार्टी परिवारवाद से अछूती नहीं है. खासकर बिहार के दो सबसे बड़े सियासी घराने की हालत ये है कि वहां परिवार ही सबकुछ है परिवार ही पार्टी है और परिवार का ही बोलबाला है. जहां पार्टी के प्रेसिडेंट से लेकर सेक्रेटरी तक सभी पद पर परिवारवालों का ही कब्जा है. लालू यादव और रामविलास पासवान बिहार के वो दिग्गज राजनेता हैं जिनकी पार्टी में शुरू से ही कार्यकर्ताओं से ज्यादा परिवारवालों को तरजीह दी गई है.

इस बार भी आरजेडी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी में लालू परिवार का ही बोलबाला रहा है. लालू खुद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, राबड़ी देवी पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और फिर तेजप्रताप, तेजस्वी और मीसा भारती भी कार्यकारणी के सदस्य बनाए गए हैं. यानि पार्टी में जो भी थोड़ा एक्टिव है उसे संगठन में शामिल कर लिया गया है.

विरासत की राजनीति के आसरे LJP का भी कुछ यही हाल रामविलास पासवान की पार्टी का भी है जहां उनका बेटा चिराग पासवान पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया है. रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति कुमार पारस दलित सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. जबकि परिवार के दूसरे सदस्य चिराग के चचेरे भाई प्रिंस राज अभी लोजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं.

जीतनराम मांझी के यहां भी कुछ यही हाल है मांझी खुद अपनी पार्टी हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और उनका बेटा संतोष मांझी एमएलसी के साथ उन्हें पार्टी की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई है.

जाहिर है कि हमाम में सभी नंगे हैं हालांकि सियासी पार्टियां खुद पर लगे परिवारवाद को सही मानने को कतई तैयार नहीं. सभी एक-दूसरे पर आरोप लगाती हैं फिर चाहे वो आरजेडी-कांग्रेस हो या फिर जेडीयु-बीजेपी. महागठबंधन हो या फिर एनडीए कोई भी परिवारवाद से अछूता नहीं है.

बिहार की सियासी पार्टियां खुद को परिवारवाद से अलग रखने के लिए अब कोई भी दलील दे, लेकिन असलियत ये है कि बिहार की लगभग सारी पार्टियों पर परिवारवाद का दाग लगा है. ऐसे में सवाल ये भी है कि इस परिवारवाद से अब लोकतंत्र कैसे बचेगा. फिर लोकतंत्र नहीं रहेगा तो आखिरी पायदान से कर्पूरी ठाकुर. राम मनोहर लोहिया, लालू, रामविलास और नीतीश कुमार जैसे लोग राजनीति में कैसे आ पाएंगे?

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