छठ पूजा का अपमान, क्या आपको भी लगता है कि छठ में जात-पात और धार्मिक भेदभाव होता है

छठ पूजा को लेकर हरेक साल कोई ना कोई पत्रकार अगड़म—बगड़म आलेख लिखता रहता है। कभी ललनटाप तो कभी कोई और। इस बार द प्रिंट ने यह जिम्मा संभाला है। इस आलेख में कई गलत तथ्य दिए गए है। डेली बिहार आपके सामने उस आलेख को हुबहू प्रकाशित कर रहा है आप से पूछ रहा है कि क्या यह सारे तथ्य सही हैं या गलत…

Sorry बिहारियों छठ के प्रति आपकी भावनाएं दिखावटी हैं क्योंकि यहां भी आप जातिवादी और पुरुषवादी हैं
आजकल बिहार में रहना हो रहा है. बिहार चुनाव की कवरेज जिसका ख़ास मकसद था, लेकिन यहां पर आपको हर डगर पर जातिवाद दिख जाएगा. बिहार की सामाजिक संरचना समझने के लिए यहां रहना घाटे का सौदा नहीं. ख़ासकर छठ जैसे महापर्व पर जो यहां के लोगों या यूं कहे कि बिहारियों के लिए आस्था के साथ-साथ जज्बात का पर्व है और वे इससे अपने आप को इतना जुड़ा हुआ समझते हैं कि इसमें फैली बुराई को भी समझने की कोशिश नहीं कर पाते. बिहार में इसे बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. इस त्यौहार में थोड़ा बहुत कुछ अलग है तो वो है सूर्य की आराधना. यह प्रकृति की पूजा है, सूर्य के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने का पर्व है लेकिन वास्तविकता और व्यवहार में जो चीजें इस पर्व में मौजूद हैं वह किसी भी सभ्य समाज के लिए दुखदायी होंगी.

छठ का त्यौहार नदी या पोखर (तालाब) के किनारे मनाया जाता है. यहां घाटों की व्यवस्था होती है, जिसमें व्रत करने वाले लोग पूजा करते हैं. यहां तक तो सब कुछ ठीक है. लेकिन इसके बाद कुछ चीजें ऐसी थीं जो आपको झकझोर कर रख देंगी. छठ मनाने वाली जगह पर कई घाट होते हैं और दुख की बात यह है कि अमूमन जातियों के आधार पर घाट बने होते हैं. जैसे चमारों का अलग घाट था, लोहार, कानू, कुर्मी आदि का अलग घाट था, राजपूतों, ब्राह्मण का अलग और सबसे कोने में डोम जाति के लिए एक छोटा-सा घाट बना था. डोम जाति के लोग भी छठ कर रहे थे, लेकिन उनका पंडाल देखने से ही समझा जा सकता था क्योंकि वहां उत्सव और सजावट में कमी दिखाई दे जाएगी. ताज्जुब की बात ये है कि उनके घाट पर कोई जल्दी से नहीं जाता.

डोम और चमार जाति के पंडाल/घाट बिल्कुल पास में ही थे लेकिन दोनों के बीच में एक तय दूरी दिखाई दे जाएगी. दलितों में भी कई उपजाति हैं, जो जिससे ऊपर है वो अपने आपको नीचे वालों से श्रेष्ठ मानने की भूल करते हुए मिल जाएंगे. जबकि वे खुद एक भेदभाव और अन्याय के साक्षी हैं लेकिन जाने-अनजाने वैसा ही अपने से नीचे वालों के साथ कर रहे थे. इसी तरह चमारों के पंडाल/घाट से ब्राह्मण/राजपूतों को कुछ लेना-देना नहीं था. वे भी दूरी बनाए हुए दिखाई दे जाएंगे. हैरान करने वाली बात ये है कि बिहार में फैली असली जाति-व्यवस्था की हकीकत छठ पूजा स्थल पर देखने को मिलती है.

गौरतलब है कि देशभर में हिंदू बनाने के लिए कई राजनीतिक पार्टियां जोर देती रही हैं. बाहर से पहले लगा था कि छठ पर केवल सब हिंदू होते होंगे लेकिन अफसोस यहां भी हिंदुओं से पहले उनकी जाति आगे आ जाती है और जोर-शोर से मनाने वाले बिहारी इस पर्व को अपने घेरे (जाति) में ही मनाते हैं. इस तरह की जाति व्यवस्था से हमारा देश अलग-अलग व्यवस्था में बंटता है, जिस पर कभी कोई बिहारी बहस नहीं करना चाहता. जबकि देश की लगभग हर इंडस्ट्री में बिहार के लोग आसानी से दिख जाएंगे. यानी अगर यहां निरक्षरता है तो अच्छे-खासे पढ़-लिखे लोग भी हुए हैं.

पिछले साल ‘द हिंदू बिजनेसलाइन’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक पता चलता है कि तकरीबन 80 लाख बिहारी अपने राज्य से बाहर रहते हैं. इनमें वे बिहारी भी होंगे जो देश से बाहर विदेशों में रहते होंगे. अच्छी पोस्ट पर होने के बावजूद भी वे शायद ही इस व्यवस्था पर आवाज़ उठाते हैं.

बिहार से आने वाले बाबू जगदेव प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद यादव ने ताउम्र सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी, शोषित-वंचित-पिछड़ों की आवाज उठाई लेकिन बावजूद इसके बिहार जाति के दलदल से आज भी निकल नहीं पाया है. बल्कि समानता लाने की कोशिश करने वाले इन शख़्सियतों को गाली भी दी जाती है क्योंकि इन्होंने सामाजिक न्याय और पिछड़ों को आगे लाने की बात की. बाबू जगदेव प्रसाद ने कहा था, ‘मानववाद की क्या पहचान- ब्रह्मण भंगी एक सामान, पुनर्जन्म और भाग्यवाद- इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद’

संझिया घाट यानी शाम को डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के लिए सभी व्रत करने वाले लोग पानी के पास जाकर अर्घ्य दे देते हैं, लेकिन डोम जाति के लोगों को वहां जाने की भी इजाजत नहीं होती. वे पोखर (तालाब) के सबसे अंतिम छोर पर खुद ही यह सब करते दिखाई दे जाएंगे. उनके पास न कोई जाना पसंद करता है और न उनसे किसी को कोई मतलब दिखाई देता है.

अमूमन सभी पंडालों में रौनक दिख रही थी लेकिन डोमों के पंडाल से रौनक वैसे ही दूर थी जैसे सदियों से उनकी जिंदगी से प्रकाश गायब है. वे भी सूर्य की आराधना कर रहे थे लेकिन सूर्य की रोशनी उनसे कोसों दूर दिखाई देगी. उनके भीतर इतना भी साहस नहीं कि किसी और पंडाल में जाकर वहां पूजा आदि कर लें. लेकिन इन सब के बावजूद उनके मन में कोई शिकायत नहीं है क्योंकि इसे ही वे अपनी नियति मान बैठे हैं.

भोरवा घाट यानी उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा. उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के बाद प्रसाद का वितरण किया जाता है. लेकिन यह प्रसाद का वितरण आपस में ही किया जाता है. यानी प्रसाद लेने सवर्ण चमारों या डोम के पंडाल में नहीं जाते हैं या महिलाएं भी अन्य जाति की महिलाओं को सिंदूर लगाती नहीं दिखतीं. यहां भी एक ही जाति के लोग आपस में प्रसाद और सिंदूर लगाने की परंपरा का पालन कर लेते हैं.

ब्राह्मण जाति के लोग डोम के घर का बना हुआ ठेकुआ प्रसाद के रूप में ग्रहण इसलिए भी नहीं करते हैं क्योंकि व्यवहार में कभी ऐसा हुआ ही नहीं. सवर्ण जाति की महिलाएं डोम जाति की महिलाओं को सिंदूर इसलिए भी नहीं लगाती क्योंकि उन्होंने कभी अपनेपन से उन्हें देखा ही नहीं. जातिवाद शुरुआत से ही आस्था पर हावी था और है. जातिवाद की बीमारी सबसे घातक है ,जो भगवान के पूजा स्थल पर भी कड़ाई (स्ट्रीक्टली) से फॉलो की जाती है.

छठ पूजा स्थल पर कई ऐसे मुद्दे मिल जाएंगे जो इस सो-कोल्ड (तथाकथित) सभ्य समाज को आइना दिखाता है. छठ का व्रत अधिकतर महिलाएं ही रखती हैं, ये व्रत ज्यादातर पति और बेटों के लिए ही रखा जाता है. इसका बखान यहां के मशहूर गीतों में भी दिखाई दे जाएगा. देखा जाए तो ये व्रत भी करवाचौथ, होई अष्टमी, तीज आदि की तरह ही है, जो केवल महिलाओं के लिए एक त्याग है. वे भूखी भी रहेंगी, वे इन पर्वों के समय मेहनत और तैयारी भी करेंगी और ताउम्र गाली-दुत्कार भी सहेंगी लेकिन फिर भी पुरुषों को खुश करना ही उनका एक मात्र मकसद दिखाई देता है!

जहां दूसरी तरफ परिवार के पुरुषों के लिए ये पर्व पटाखे फोड़ने, मजे करने के लिए है. लड़कियां और महिलाएं अपने ही खिलाफ गीत गाती हैं तो दूसरी तरफ पुरुष पंडाल को बनाने और सजाने का काम करते हैं. व्रत भी रखेंगी तो अपनी उम्र बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि अपने ऊपर राज करने वाले पुरुषों की उम्र बढ़ाने के लिए. उन पर पुरुषवाद इस तरह हावी हो गया है कि वे ये भी नहीं पहचान पा रही हैं कि इससे उन्हें कितना नुकसान है!

जैसे छठ में गाए जाने वाले कुछ मशहूर गानों को में सुना जा सकता है कि व्रत अमूमन बेटे और पति की खुशहाली के लिए ही किए जाते हैं. प्रकृति की पूजा में भी अंधविश्वास और आडंबर घर कर गया है. छठ में प्रचलित इस गाने के बोल पढ़िए-

‘बांझीनी के पुत्र जब, दिहले दीनानाथ खेलत-कुदत घर जात। अन्हरा के आंख दिहले कोढ़िया के कायावा हसत बोलत घर जात।’ इन गानों की लाइनें पितृसत्तात्मक/सामंति व्यवस्था और सोच को ही मजबूत करती हैं. गाने के बोल के मुताबिक ‘बांझिन’ को जब दीनानाथ ने पुत्र दिया तो वह हंसती-खेलती हुई घर चली गईं. वहीं ‘अंधे’ (दृष्टिहीन) को जब आंख और ‘कोढ़ी’ को काया तो वे हंसते खेलते घर चले गए. इस मशहूर गाने के बोल कई जगह आपत्तिजनक हैं लेकिन समाज में इसे स्वीकार्यता प्राप्त है.

छठ के ज्यादातर गानों में महिलाएं इसी प्रकार की प्रार्थना करती नजर आ रही हैं, जिनमें कभी वे पति की लंबी आयु तो कभी बेटा पाने के लिए प्रार्थना कर रही हैं. आखिर क्यों एक भी ऐसा गाना मिलना मुश्किल हो जाता है जिसमें यह प्रार्थना की जाए जहां महिलाओं/वंचितों को गुलामी से आजादी मिले. बेटियों को भी समाज में बराबरी का हक मिले, वंचितों को समान समानता के अवसर मिले.

छठ मनाने में जो आडंबर और कुरीतियां हैं उससे इस देश को निकलने की जरूरत है, लेकिन अफसोस हमारा सो-कोल्ड सभ्य समाज इसी में खुश है. महिलाएं, वंचित, शोषित समाज को ये प्रथाओं और त्यौहार से जैसे और पीछे धकेला जा रहा है.

सॉरी बिहारियों लेकिन आपने प्रकृति की पूजा छठ को ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के हवाले कर दिया है. व्यवहार में इस त्यौहार को जाति और आडंबर से लाद दिया है. इस पर्व के प्रति आपके जज्बात भी खोखले और दिखावटी हैं. दुनिया का सबसे क्रूरतम शोषण यहां भी हो रहा है लेकिन आप लोगों ने उसे मौन सहमति दे दी है और अपनी आंखें मूंद ली हैं. सो कॉल्ड हमारा सभ्य समाज छठ के घाट पर भी डोम के साथ पूजा नहीं करता है, उनसे प्रसाद नहीं लेता है, मेल-जोल नहीं रखता है, उन्हें इंसान नहीं मानता है. कुत्तों को लाड प्यार (चूमने वाला) करने वाला वही सो कॉल्ड सभ्य समाज डोम जाति से प्रसाद लेना भी वाजिब नहीं समझता! गाय को देवी मानते हो लेकिन डोम को छूते भी नहीं, तो ऐसे में क्या समझा जाए कि छठ के प्रति आपकी जो ये भावनाएं है वो खोखली और दिखावटी हैं!

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