पटना कॉलेज का एक प्रोफेसर जो बन गया बॉलीवुड का नंबर 1 संगीतकार, जयंती पर चित्रगुप्त को नमन

चित्रगुप्त बिहार के एक मामूली गांव से निकलकर बॉलीवुड में छा गये। हिंदी सिनेमा के साथ-साथ भोजपुरी सिनेमा को भी अपने संगीत से एक अलग ऊंचाई पर ले गए। वे गोपालगंज जिला के थे। गोपालगंज तब सारण का हिस्सा था। सारण ना सिर्फ बिहार बल्कि पूरे पुरबिया इलाके में सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत ही उर्वर जमीन है। उसी सारण से भोजपुरी के तीन अनमोल रत्न भिखारी ठाकुर, महेंदर मिसिर और बाबू रघुवीर नारायण हुए। चित्रगुप्त जिस गोपालगंज जिले के थे, उसी जिले से रसूल मियां हुए। उसी जिले के रहनेवाले हमारे पंकज त्रिपाठी अपने अभिनय से धूम मचाये हुए हैं। कहने का मतलब यह कि चित्रगुप्त इसी माटी से निकलकर फिल्मी दुनिया में छा गए। आजादी के तुरंत बाद उन्होंने भारतीय सिने संगीत की सेवा शुरू की और और फिर तो वे एक के बाद एक फिल्मों के संगीत तैयार करने लगे।

1946 से उनकी फिल्में आनी शुरू हुई और उसके बाद तो सिलसिला ही चल पड़ा। बिहारी होने, बड़े फिल्मी संगीतकार होने से इतर चित्रगुप्तजी हमारे लिए, हम जैसे लोगों के ?लिए अलग से भी गर्व का भाव भरते हैं और थोड़ा ज्यादा करीब के लगते हैं। उन्होंने पहली भोजपुरी फिल्म ‘ हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ईबो’ का संगीत तैयार किया था। बिहार के आरा के रहनेवाले शैलेंद्र का गीत और चित्रगुप्त का संगीत, दोनों की कमाल जोड़ी ने भोजपुरी में एक नये युग की शुरुआत कर दी थी। भोजपुरी की पहली फिल्म का संगीत देकर चित्रगुप्त रूके नहीं, फिर तो उन्होंने भोजपुरी फिल्मी संगीत की मजबूत बुनियाद ही तैयार करनी शुरू कर दी। चित्रगुप्त तब? हिंदी सिनेमा के लिए संगीत तैयार करते रहे, चोटी के कलाकारों से गवाते रहे लेकिन साथ में भोजपुरी सिनेमा के लिए भी संगीत तैयार करते रहे और जितने भी चोटी के कलाकार तब थे, सबसे भोजपुरी गवाते रहे। चित्रगुप्त जब तक रहे, हिंदी सिनेमा संगीत के चोटी के कलाकार भोजपुरी गीतों को अपना स्वर देते रहे। वे 1946 से 1998 तक फिल्मी दुनिया में रहे।

चित्रगुप्त का पूरा नाम चित्रगुप्त श्रीवास्तव था। बचपन से संगीत में उनकी गहरी रूची थी। शुरू में कुछ सालों तक सूबे के प्रतिष्ठित पटना कॉलेज में व्याख्याता के रूप में पढ़ाते रहे। लेकिन, संगीत के प्रति लगाव ऐसा था कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी और बंबई चले गए। संगीतकार एस.एन त्रिपाठी के सहायक बन गए और स्वतंत्र संगीत निर्देशक के रूप में काम करने लगे। उनकी पहली फिल्म 1946 की ‘फाइटिंग हीरो’, रही, लेकिन चर्चित हुए फिल्म ‘भाभी’ के संगीत से। अपने चार-पांच दशके कॅरियर में उन्होंने करीब 150 फिल्मों में संगीत दिए, जिनमें कुछ प्रमुख फिल्में हैं- भाभी, बरखा, चांद मेरे आजा, पतंग, मैं चुप रहूंगी, ऊंचे लोग, ओपेरा हाउस, गंगा की लहरें, आकाशदीप, पूजा के फूल, औलाद, एक राज, अफ़साना, मां, बिरादरी, नया रास्ता, शादी, परदेशी, वासना, बारात, मेरा कसूर क्या है, किस्मत, हम मतवाले नौज़वां, नाचे नागिन बाजे बीन और काली टोपी लाल रूमाल। 1962 में पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ बनी और इसका संगीत निर्देशन चित्रगुप्त ने ही किया। इस फिल्म के गीतों ने इतिहास रच दिया। फिर उन्होंने लागी नाही छूटे रामा, गंगा किनारे मोरा गांव, बलम परदेसिया और भैया दूज जैसी कई बेहतरीन भोजपुरी फिल्मों में संगीत दिया।

चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना., चली चली रे पतंग मेरी चली रे., तेरी दुनिया से दूर चले होके मज़बूर.,मुझे दर्दे दिल का पता न था., महलों ने छीन लिया बचपन का प्यार मेरा., लागी छूटे ना अब तो सनम., दिल का दीया जलाके गया ये कौन मेरी तन्हाई में.।

शुरुआत में चित्रगुप्त भक्ति फ़िल्मों में संगीत देने के लिए चर्चित हुए।

जैसे ‘तुलसीदास’ (1954) का भजननुमा गीत- मुझे अपनी शरण में ले लो राम.को उन्होंने तैयार किया था। इसे लिखा था हिंदी साहित्य के चर्चित कवि-गीतकार गोपाल सिंह नेपाली ने। इन दोनों की जुगल जोड़ी ने कई शानदार गीत तैयारी की।

फिर चित्रगुप्त को लता मंगेशकर का साथ मिला। या यूं कहिए कि लता ने चित्रगुप्त की धुनों की मधुरता बढ़ाई तो चित्रगुप्त के संगीत ने लता की स्वर मधुरता को नया आयाम दिया। ‘लता सुर गाथा’ में लताजी कहती हैं कि चित्रगुप्त एक दिन लंगड़ा कर चल रहे थे। तब मैंने पूछा कि क्या आपके पैर में दिक्कत है, तो उन्होंने कहा कि मैं टूटी हुई चप्पल पहनकर आया हूं। तब हमने कहा कि चलिए आपके लिए नया चप्पल ले आते हैं। इस पर झेपते हुए चित्रगुप्त जी बोले- ये चप्पल मेरे लिए शुभ है, जिस दिन इसे पहनकर आते हैं, उस दिन रिकॉर्डिंग अच्छी होती है.।

मोहम्मद रफ़ी और मुकेश, चित्रगुप्त के प्रमुख पुरुष गायक रहे। चित्रगुप्त ने कुछ प्रयोग किशोर कुमार की आवाज़ से साथ भी किए। पंकज राग ‘धुनों की यात्रा’ में चित्रगुप्त के बेटे आनंद के हवाले से कहते हैं कि ‘एक रोज़ आनंद बक्शी उनके घर के बगीचे में गीत लिख रहे थे तो मजरुह कहीं और डटे हुए थे, राजेन्द्र कृष्ण उनके संगीत-कक्ष में लगे थे और प्रेम धवन पिछवाड़े के नारियल के पेड़ के नीचे लिख रहे थे, और चित्रगुप्त बारी-बारी से एक हेडमास्टर की तरह सबके पास जाकर उनकी प्रगति आंक रहे थे। ‘

वर्ष 1988 में चित्रगुप्त ने आखि़री बार किसी फ़िल्म में संगीत दिया और संयोग देखिए इसी साल उनके दोनों बेटे-आनंद और मिलिंद ने ‘क़यामत से क़यामत तक’ में शानदार संगीत देकर तहलका मचा दिया था। इस तरह एक पिता की साधना सफल हो गई। आज चित्रगुप्त हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके गीत-संगीत आज भी हमें गुनगुनाने को विवश करते हैं और उस दौर की भी याद दिलाते हैं।

-Chandan Tiwari

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