चुनावी रैली का सच, जो मोदी-मोदी करता है वही पैसों के लिए चौकीदार चोर है का नारा लगाता है

PATNA ; शाम के तकरीबन 7:30 बजे का समय था भुतहा चौक पर राजनीति चर्चाएं जारी थी। हर चाय की दुकान पर लगभग आठ दस लोग बैठे थे और सभी लोग राजनीतिक चर्चा में व्यस्त थे। एक दुकान पर देवेंद्र यादव को जिताने की बात हो रही थी दूसरे दुकान पर एनडीए के उम्मीदवार को तीसरी दुकान पर राजद के उम्मीदवार को। कुल जमा यह समझना मुश्किल हो रहा था कि यहां वस्तुतः किस उम्मीदवार के पक्ष में हवा है।

इन चर्चाओं में उलझना निश्चित ही सिर दर्द मोल लेना था। पर बस 9:00 बजे की थी तो किसी तरह समय तो गुजारना था। तभी एक टाटा विंगर वहॉ रुकी जिसमें से लगभग 20-25 लोग बाहर आए। एक नेता टाइप आदमी था, जिसने लोगों की गिनती की और सब को चाय पिलाया पर उस दरमियान वह सिर्फ यही कहता रहा ध्यान रखना अभी आराम का समय नहीं है, जो कमा लोगे सो कमा लोगो। कल सुवह 8:00 बजे नाश्ता करके तैयार रहना।

वहां हमारे स्थानीय मित्र थे भारत भूषण पेशे से शिक्षक हैं पर राजनीति में इनकी बड़ी दखल है। उस चौक और अगल-बगल के गांव के इनकी काफी पकड़ है। लिहाजा वह हर गुट में थोड़ी देर बैठते और मजबूरन हमेंभी एक कप चाय और पान खाना पड़ता।

खैर चौक पर जब गहमागहमी कम हुआ तो हमने पूछा भाई ? यह लोग जो गाड़ी में आए थे ये लोग कौन थे? रैली मे गए थे उनका सपाट जवाब था, मैने फिर पुछा किसके रैली मे गए थे ?झंडा तो किसी के हाथ मे है नहीं ?

चलिए झिटकी लाइन होटल पर खाना खा लेते हैं बस समय पर आ जाती है। इतना कहकर भूषण भाई कार में बैठ गए और हमरे बैठने के लिए अगले सीट का दरबाजा खोल दिया। हम भी सोचे लाइन होटल हमारे भतीजे का है तो पैसा तो लगना नहीं था खाने में क्या कंजूसी। भूषण भाई ने वहां पर बातें स्पष्ट की और तब समझ में आया राजनीति का खेल, रैली में आने वाले लोगों की मानसिकता और वोटर का मिजाज।

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मामला यह उभर कर सामने आया कि वह जो व्यक्ति विंगर में लोगों को लेकर आया था वह सुबह इन लोगों को विंगर में बैठा कर ले जाता है। इस चुनावी मौसम में एक दिन में तीन-चार रैलियां तो हो ही जाती है। वह नेता(लोकल) इन लोगों को प्रत्येक रैली में भाग लेने का 400+खाना देता है। यानी एक परिवार में अगर पांच व्यक्ति हैं और प्रत्येक दिन 3 रैली में जाता है तो उस परिवार की कुल आमदनी उस दिन 6000/- की हुई। धंधो चोखो हो भाया…

विभिन्न दलों का झंडा बैनर गाड़ी की डिक्की में रखा होता है जब जिस रैली में जाना हुआ उसका झंडा बैनर हाथ में तैयार और अगर बड़े नेता है तो इन लोगों की मजदूरी प्रत्येक रैली में 500 से 600 तक भी हो जाता है। बातें समझ में आ रही थी। रैली में भीड़ होना और वोट मिलना दोनों दो बातें हैं राजनीति में वह कभी नहीं होता जो दिखता है। जो रैलियों में मोदी मोदी करता हो, वही चौकीदार चोर है भी कहता है।

वह वोट किसको देगा ? क्या कुछ पैसों के लिए वह अपना वोट भी नहीं बेच देगा? और अगर बेच देगा तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? मैं उन छोटे छोटे स्थानीय नेताओं की सोचता हूं जो आज किसी नेता की वजह से किसी एक दल के लिए काम करता हैं,लोगों से झगड़ता हैं, जब वही नेता अपना झंडा बदल लेता है तो इन छोटे नेताओं को जवाब देना कितना मुश्किल होता है उनके लिए कैंपेनिंग करना कितना कठिन हो जाता है यह समझना बहुत असहज नहीं है और यही वह स्थिति है जहां यह छोटे नेता पैसे के दम पर राजनीति की दिशा तय करते हैं और हमारी आपकी बातें टॉक शो तक सीमित हो जाती है।

मधुबनी से लौटकर हिमकर भारद्वाज

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