कागज़ में लिख दिया कि हम बंगाल पहुंच गए, जबकि हमें ट्रेन में भी नहीं बैठने दिए, छलका मजदूर का दर्द

एक तरफ तो सरकार बड़े बड़े दावे कर रही है कि देशभर में फंसे प्रवासी मजदूरों को उनके गांव गंतव्य तक पहुंचाने के लिए बसों और ट्रेनों की सुविधा मुहैया कराई जा रही है. लेकिन दूसरी तरफ ऐसी ऐसी तस्वीरें हैं जो सरकार के दावों की पोल खोल रही हैं. कोई सड़क, कोई राजमार्ग, कोई राष्ट्रीय राजमार्ग ऐसा नहीं है जहां प्रवासी मजदूरों के महा पलायन की तस्वीर दिखाई न दे रही हो.

सफर का यह पड़ाव शुरू होता है हिंदुओं के पवित्र तीर्थ स्थल पुष्कर शहर से जो जोधपुर तक जाएगा. राष्ट्रीय राजमार्ग के इधर शहर के भीतरी इलाकों में भी तड़के सुबह से लेकर मध्यरात्रि तक किस्मत के मारे मजदूर पैदल चलते दिखाई पड़ते हैं.

पुष्कर शहर के ठीक पहले हमारी मुलाकात श्यामू और राजू से हुई जो जोधपुर में मजदूरी करते थे. अब पैदल चलकर उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ जा रहे हैं. सुबह के नाश्ते में भीगा हुआ चना बचा था. लेकिन यह पता नहीं कि दोपहर को खाना मिलेगा या नहीं. वहीं रतन कुमार कहते हैं कि इसीलिए जोधपुर से निकलना पड़ा क्योंकि यह नहीं पता था कि भर पेट खाना आगे मिलेगा भी या नहीं.

फैक्ट्री बंद हो गई, अब क्या करें

राजू ने बताया कि घर वापस जाने के लिए रजिस्टर भी किया था और रसीद भी पास में है. वह कहते हैं, “जो नंबर मिला था उस पर फोन किया तो पहले उठाया और बात भी हुई. लेकिन उसके बाद कोई फोन ही नहीं उठाता.”

श्यामू ने रसीद दिखाई जिसके जरिए उन्होंने घर वापसी के लिए रजिस्ट्रेशन किया था. लेकिन रजिस्ट्रेशन के बाद जवाब और मदद दोनों नहीं मिली. श्यामू कहते हैं, “रजिस्ट्रेशन के बाद भी कोई जवाब नहीं मिला और रहना-खाना मुश्किल हो रहा था. इसलिए पैदल ही चल पड़े. जो चना था उसे रख लिया ताकि सुबह का नाश्ता हो जाए. रास्ते में कोई बिस्कुट दे देता है और कोई खाना दे देता था. जिस फैक्ट्री में काम करते थे वह बंद हो गई है तो अब क्या करें.”

राजू ने सवाल उठाया कि मुंबई से ट्रेन चल रही है. दूसरे शहरों से ट्रेन चल रही है. लेकिन हमें ले जाने के लिए कोई ट्रेन नहीं आई.

मजदूरों की हालत समझने के लिए हम पुष्कर शहर के बजरंग कॉलोनी गए, जहां उत्तर प्रदेश और बिहार के कई मजदूर फैक्ट्रियों में काम करते हैं और वहीं किराए के मकान में रहते हैं.

बिहार के सुपौल के रहने वाले इम्तियाज से हमारी मुलाकात हुई. एस्बेस्टस की छत के नीचे एक छोटे से कमरे में इम्तियाज चार और लोगों के साथ रहते हैं. घर इतना छोटा है कि सोशल डिस्टेंसिंग कोई कैसे मेंटेन करे. घर के अंदर ही किचन के नाम पर छोटा सा गैस चूल्हा बचा हुआ राशन, कुछ कंबल और कपड़े हैं.

इम्तियाज समेत यह तमाम मजदूर सिलाई फैक्ट्री में काम करते हैं जहां एक्सपोर्ट किए जाने वाले कपड़े सिले जाते हैं. लॉकडाउन के बाद फैक्ट्री बंद हो चुकी है और मजदूर अपने ही घरों में बंद हो चुके हैं. इम्तियाज अपने घर जाना चाहते हैं. वो कहते हैं, “यह एक महामारी है, कोई गारंटी नहीं है कि कब तक चलेगी. इसलिए अगर कोई सुविधा मिले तो हम निकल जाएं. खाने पीने की व्यवस्था तो है लेकिन हम अपने घर जाना चाहते हैं.”

कागज में मजदूर घर पहुंच गए

मजदूरों के बीच में सत्तार मंडल भी रहते हैं. घर पश्चिम बंगाल में है और इसी महीने की 29 तारीख को सत्तार मंडल की शादी होने वाली थी. शादी के सवाल पर शरमा गए और हंसते हुए बोले-मां ने कहा था कि पैदल चले आना. शादी पहले ही तय हो गई थी लेकिन अब लगता है नहीं हो पाएगी.

सत्तार मंडल की कहानी सिस्टम पर और कड़े सवाल उठाती है. सत्तार ने बताया कि बंगाल जाने के लिए रजिस्ट्रेशन किया था. ट्रेन भी आई थी और जाने के लिए उनका नाम भी था. लेकिन सिर्फ वह कागज पर बंगाल तक पहुंच गए. सत्तार ने बताया, “जाने के समय हमारे पास फोन आया कि आज नहीं कल जाना है. क्योंकि ममता बनर्जी ने मना कर दिया. हम कमरे पर लौट आए और सुबह 11:00 बजे की ट्रेन थी.

सत्तार मंडल ने बताया, जब ट्रेन चली गई तो मेरे पास बंगाल से फोन आया और पूछ रहे हैं कि मैं कहां तक पहुंचा. अजमेर और कोलकाता से फोन आया. लेकिन डीएम ऑफिस में सुनवाई नहीं हुई. ट्रेन आई थी और कागज में हम लोग बंगाल पहुंच गए. बंगाल में क्वारनटीन करने वाले बार बार फोन करके पूछ रहे हैं कि हम लोग कहां हैं? हमने उन्हें बताया कि ट्रेन हमें लेकर ही नहीं गई.” सत्तार मंडल ने अपना दुखड़ा रोते हुए बताया कि कैसे उनके सामने दूसरे लोग पुष्कर से निकल गए लेकिन वह नहीं जा पाए. उनकी आंखें नम हो गईं.

(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को डेली बिहार ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *