बाबर से लेकर बहादुर शाह ज़फ़र तक सभी मुग़ल बादशाह बड़े धूम धाम से मनाते थे दीवाली

जश्न-ए-चराग़ा, मुग़लों के दौर में

बाबर से लेकर आखिरी बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र तक सभी मुग़ल बादशाह दीवाली बड़े धूम धाम से मनाते थे। शाहजहां के दौर में रानियां, शहजादियां, शहजादे कुतुब मीनार से दीवाली की आतिशबाजी देखते थे।

इंग्लेंड के यात्री एन्ड्रयू 1904 में दिल्ली आए और मुंशी ज़काउल्लाह से मिले. ज़काउल्लाह ने लाल किले के अंदर का रहन-सहन, अदब-ओ-अहतराम देखा था. जिसे एन्ड्रयू ने किताब Zakaullah of Delhi में तफसील से लिखा है, उन दिनों हिंदू-मुसलमान धार्मिक त्योहारों को साथ मिलकर मनाते थे. दोनों एक दूसरे के जश्न में दिल से शामिल होते थे.

दीवाली की तैयारियां किले में महीनों पहले से शुरू होती थी. आगरा, मथुरा, भोपाल, लखनऊ से बेहतर हलवाई बुलवाए जाते थे. मिठाई बनाने के लिए देसी घी गांवों से लिया जाता था. महल के अंदर से लेकर बाहर और आस पास की जगहें रोशन कर दी जाती थी.मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में दिवाली के जश्न की शुरुआत आगरा से की गई. वहीं शाहजहां ने भी रोशनी के इस त्योहार को उतनी ही शिद्दत से मनाया. उसी दौर में ‘आकाश दिये’ की शुरुआत हुई.

दीवाली के लिए आतिशबाज़ी, जामा मस्जिद के पीछे के इलाके पाइवालान से आती थी. बादशाह, महल को जगमग करने का हुक्म देते थे. लाल किले में 40-yard ऊंचा विशाल दीपक लगाया जाता था. जो दिवाली वाली रात जलता था. जिसकी रोशनी लालकिले से चांदनी चौक तक जाती थी. इस दिये में 100 किलो से ज्यादा रूई, सरसों का तेल लगता था. दिये में रूई की बत्ती और तेल डालने के लिए बड़ी सीढ़ी का इस्तेमाल होता था.

-मुग़ल सल्तनत

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