हनुमान चालीसा पर नया विवाद, क्या आप भी गलत हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं

जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी और हनुमान चालीसा पर विवाद गीताप्रेस से छपने वाली हनुमान चालीसा, मानस समेत कई ग्रंथों के टीकाकार हनुमान प्रसाद पोद्दार विद्वान थे, परंतु अंतिम अथॉरिटी नहीं थे। उन्होंने जो लिखा, और ऑफसेट प्रिंटिंग से जो छपा, वही छपता आ रहा है।

यह आवश्यक नहीं कि वह पूरी सही ही हो, या त्रुटियाँ न हों। जगद्गुरु रामभद्राचार्य केवल कथावाचक नहीं हैं। संस्कृत, हिन्दी, अवधी समेत दर्जन से अधिक भाषाओं के प्रकांड विद्वान भी हैं और संस्कृत व्याकरण पर भी उनके कई ऐसे ग्रंथ हैं, जिस स्तर के ग्रंथ उनके जीवन काल से कई शताब्दी पूर्व तक किसी और ने लिखना तो छोड़िए, टीका तक करने का साहस नहीं दिखाया। तो, भाषा और व्याकरण दोनों पर उनका अकादमिक सामर्थ्य भी है।

शास्त्रादि पर उन्होंने कितनी रचना की है, उस पर कहने की आवश्यकता मैं नहीं समझता। बात यह है कि प्रचलन में एक हनुमान चालीसा है, एक मानस है। छपाई की अशुद्धियों पर संभवतः बाकी लोगों ने पहली बार सुना होगा पर मैं गुरुजी को ठीक-ठाक समय से सुन रहा हूँ और उन्होंने अपनी लगभग हर रामकथा में इन विषयों पर थोड़ा-बहुत बोला ही है। चाहे बागेश्वर धाम में उनकी कथा को ले लें, या चित्रकूट में या आगरा में। इन सारी कथाओं में, जो इसी वर्ष कही गई हैं, उन्होंने इस पर बोला ही है। ऐसा नहीं है कि उनको किताबें बेचनी हैं और वो गीताप्रेस को, हनुमान प्रसाद पोद्दार को नीचा दिखाना चाहते हैं।

वो जब भी किसी त्रुटि की बात करते हैं त उसका शास्त्रीय प्रमाण अथवा व्याकरण और भाषा के मानदंड पर संदर्भ सहित व्याख्या करते हैं कि ‘सुवन’ का अर्थ पुत्र से है, तो वो ‘शंकर के पुत्र’ की जगह ‘शंकर स्वयं’ होगा। ‘तपस्वी राजा’ को भी ले कर उनका तर्क है कि राम विशुद्ध राजा थे, तपस्वी होने का कोई अर्थ नहीं बैठता। जनक जी भी तपस्वी जैसा जीवन जीते थे, पर उन्हें राजर्षि कहा जाता था, तपस्वी राजा नहीं। इसी तरह, उन्होंने बाकी त्रुटियों के भी कारणों की पूरी चर्चा की है। चूँकि दोनों ही अवधी की रचनाएँ हैं, बहुत सारा समय बीत चुका है तो शास्त्र सम्मत व्याख्या को सुनने-समझने के बाद ही इस पर टिप्पणी करनी चाहिए।

कम से कम मेरी तो इतनी औकात नहीं कि जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी का नाम भी ले सकूँ, उनकी बातों पर टिप्पणी तो दूर की बात है। ऐसा नहीं था कि हमारे पूर्वजों को लिखना नहीं आता था, पर वेद आदि श्रुति परंपरा से केवल इसी कारण आए कि एक बार यदि त्रुटिपूर्ण छपाई हो गई, तो हो गई। अर्थ में परिवर्तन हो जाएगा और ज्ञान का लक्ष्य कलंकित हो जाएगा। उच्चारण में बलाघात से ले कर आरोह-अवरोह आदि कई बातें होती हैं जिससे अर्थ परिवर्तन हो जाता है। यदि कोई ऐसा विद्वान जिसने आज के समय में प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिख रखा हो, पाणिणी के अष्टाध्यायी पर भाष्य रचना की हो, तो उनके वचनों को सीधे नकारने से अच्छा है कि कुछ न बोला जाए। आपको जो पढ़ना है, पढ़िए। आप स्वतंत्र हैं। रामभद्राचार्य जी महाराज डंडा ले कर आपको मारने नहीं आएँगे कि आप क्या कर रहे हैं।

अजीत भारती, या लेखक के निजी विचार है

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