जयंती पर जॉर्ज फ़र्नान्डिस को शत-शत नमन, आयरन लेडी इंदिरा की घमंड को कर दिया था चकनाचूर

राजनीति समय और मिज़ाज दोनों के साथ बदलती है। मिज़ाज का सीधा संबंध होता है, व्यक्ति विशेष के व्यवहार और चरित्र से। बहुत कम ही लोग होते हैं जो अपने व्यक्तित्व की छाप राजनीति पर छोड़ पाते हैं और जिनका राजनीतिक कैनवास इतना बड़ा हो कि समय के साथ भी उनका राजनीतिक विचार जारी रहे। ऐसी ही शख्सियत जॉर्ज फर्नांडिस की थी जिनके साथ एक पूरा राजनीतिक कैनवास जुड़ा हुआ हैं।

शुरुआती दौर……जॉर्ज फ़र्नान्डिस का जन्म 3 जून 1930 में कर्नाटक के मंगलौर के एक पादरी परिवार में हुआ। वे शुरू से ही अल्हड़ और विद्रोही स्वभाव के थे जो आगे चलकर उनकी पहचान बनी। हालांकि जॉर्ज का जन्म कर्नाटक में हुआ लेकिन उन्होंने अपनी कर्मभूमि बंबई और बिहार को बनाई।

जॉर्ज साहब 1949 में मुंबई पहुंचे। यह वह दौर था जब श्रमिकों, किसानों,मजदूरों के बीच असंतोष बढ़ता जा रहा था और उन्हें एक ऐसे मजबूत और जुझारू नेता की जरूरत थी जो उनके मुद्दों को लेकर संघर्ष कर सके। 1955 में जॉर्ज ने फुटपाथ और श्रमिकों की लड़ाई लड़ते हुए एक आंदोलन खड़ा किया जिसे विशाल जन समर्थन मिला और वह धीरे-धीरे मुंबई के सबसे बड़ा मजदूर नेता बन गए। इसी दौर में बालासाहेब ठाकरे महंगाई और गरीबी का मुद्दा उठाते हुए मुंबई की राजनीति में अपनी जगह तलाश रहे थे। इसी समय से बाला साहब और जॉर्ज के बीच छत्तीस का आंकड़ा हो चुका था।

1950-60 के दशक के बीच जॉर्ज ने कई श्रमिक हड़तालों का नेतृत्व किया और वामपंथी श्रमिक यूनियनों को पीछे छोड़ते हुए सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन को मुख्यधारा में स्थापित किया। जॉर्ज लंबे समय तक मुंबई से म्युनिसिपल काउंसलर थे और अपने मजबूत नेतृत्व के सहारे देश भर में चर्चित हो रहे थे।

एक चुनाव जिसने जॉर्ज को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया ….1967 का दौर था, जॉर्ज साहब मुंबई से म्युनिसिपल काउंसिलर थे। आम चुनाव नजदीक थे और इस बार जॉर्ज भी लोकसभा चुनाव लड़ने वाले थे। लेकिन मुश्किल यह थी कि उनके सामने कांग्रेस के कद्दावर नेता एस के पाटिल थे। राष्ट्रीय स्तर पर सबसे पहले उनकी पहचान इसी चुनाव की वजह से हुई। इस चुनाव के दौरान जब पत्रकारों ने पाटिल से सवाल पूछा कि आप के खिलाफ म्युनिसिपल काउंसिलर चुनाव लड़ रहा है तो उन्होंने कहा कि वह किसी को नहीं जानते और उन्हें आगामी चुनाव में भगवान भी नहीं हरा सकते। नतीजों ने सबको चौंका दिया। उन्होंने मुंबई दक्षिण से कांग्रेस के कद्दावर नेता एस के पाटिल को 42000 वोटों से हराया और पहली बार संसद पहुंचे।

1974 का रेलवे हड़ताल …..जॉर्ज के नेतृत्व में हुआ रेलवे हड़ताल दुनिया के सबसे बड़े हड़तालों में माना जाता है। इस हड़ताल ने पूरे देश में चक्का जाम कर दिया। हड़ताल इतना व्यापक था कि तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने बहुत क्रूरता से इसे कुचलने की कोशिश की जिसमें वह सफल रही। जॉर्ज को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें जेल में डाल दिया गया। उसी समय उन पर डायनामाइट केस में देशद्रोह का आरोप लगा जिसमें सरकारी दफ्तरों को बम से उड़ाने का आरोप उनपर लगाया गया। गौरतलब है कि जयप्रकाश नारायण के कहने पर वर्तमान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के पति ने जॉर्ज साहब का केस लड़ा।

आपातकाल का दौर….25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लागू कर दी गई। अगले ही दिन जॉर्ज भुवनेश्वर चले गए और उसके बाद भूमिगत होकर आंदोलन का नेतृत्व करने लगे।जॉर्ज साहब आपातकाल के दौर के नायक थे। इस दौरान उनके भाई माइकल फ़र्नान्डिस को गिरफ्तार कर लिया गया और और उन्हें खूब यातनाएं दी गई। 10 जून 1976 को जॉर्ज फ़र्नान्डिस को गिरफ्तार कर लिया गया और रातोंरात उन्हें कोलकाता से दिल्ली लाया गया। दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में उनकी पेशी होनी थी। पुलिस की जीप से निकलते वक्त उनके हाथों में हथकड़ियां थी। उस समय की उनकी फोटो खूब चर्चित हुई, जिसने युवाओं को आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। जेल में रहते हुए ही उन्होंने बिहार के मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ने का फैसला किया। उस दौरान उनका हथकड़ी वाला पोस्टर खूब प्रसिद्ध हुआ।घरों के पूजा घर तक में ये पोस्टर चस्पा कर दी गई थी जिसपर लिखा था- “यह हथकड़ी हाथों में नहीं लोकतंत्र पर है। जेल का ताला टूटेगा,जॉर्ज फ़र्नान्डिस छूटेगा।”

जॉर्ज एक विद्रोही राजनेता थे। जिनका परंपराओं को मानने में यकीन नहीं था। आजाद भारत की राजनीति में ऐसा दूसरा कौन है जो पादरी परिवार में जन्म लेकर समाजवादी हुआ,घर से निकल कर कई-कई बार देश को हिलाने या रोक देने वाला बना। जिसकी बेचैनी शायद ज्यादा बड़ी थी। मौजूदा समय की राजनीति पर जॉर्ज साहब की राजनीति की गहरी छाप है। वह बेचैन आत्मा थे और चैन से बैठे नहीं सकते थे। उन्होंने परिवार से बगावत कर के राजनीति शुरू की थी। उनकी भाषण कला अद्भुत थी और नई जगह पर संगठन खड़ा करने की क्षमता भी उनमें थी।

अपनों से ही मिला धोखा…मौजूदा समय में जॉर्ज साहब को जानना और उनके द्वारा खड़े किए गए स्तंभों को जानना आवश्यक हो जाता है। हमेशा अपने विरोधियों को चित करने वाले जॉर्ज अपने ही विश्वस्त लोगों से मात खा बैठे।

1994 में उन्होंने समता पार्टी का गठन किया जिसमें नीतीश कुमार और शरद यादव जैसे बड़े नेता भी शामिल थे। जॉर्ज ही वो वो शख्स थे जिसने नीतीश कुमार को राजनीतिक फ्रेम में गढ़ने का काम किया और लालू की राजनीति के काट के तौर पर नीतीश को खड़ा कर उसमें पैनापन लाने का काम किया। शरद यादव को भी जबलपुर की छात्र राजनीति से सीधे राष्ट्रीय राजनीति में लाने का काम भी जॉर्ज साहब ने ही किया था। लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनके शिष्य ही उनके साथ विश्वासघात कर बैठेंगे।

याद करिए 2006 का जनता दल यूनाइटेड का अध्यक्ष पद चुनाव। शरद यादव और जॉर्ज फ़र्नान्डिस आमने-सामने थे। नीतीश ने पार्टी में गोलबंदी कर शरद यादव के पक्ष में माहौल बना लिया था। मतदान हुआ, शरद यादव को 413 मत मिले, वहीं जॉर्ज साहब को 25 मत। जॉर्ज पार्टी में अलग-थलग पड़ गए। फिर,2009 के लोकसभा चुनाव में उनको टिकट न देकर उनकी राजनीति खत्म कर दी गई। जॉर्ज राजनीतिक वनवास के शिकार हो गए। लालू की सत्ता के खिलाफ बढ़ते आक्रोश को देखते हुए उन्होंने जो रणनीति बनाई थी, इससे यह जरूर कहा जा सकता है कि इससे जॉर्ज का कद बढ़ा हो या ना हो लेकिन नीतीश कुमार राजनीति में स्थापित हो गए।

जब विवादों के बीच घिरे जॉर्ज….जॉर्ज हमेशा अपने विद्रोही स्वभाव के कारण विवादों में बने रहते थे। वह कांग्रेस विरोधी थे। लेकिन कुछ विवाद ऐसे थे जिसने जॉर्ज की छवि को काफी ठेस पहुँचाई। जॉर्ज साहब वाजपेयी जी की सरकार में रक्षा मंत्री थे। तब उनका नाम ताबूत घोटाले में आया। विवाद इतना बढ़ गया कि उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।तहलका स्टिंग के दौरान भी उनका नाम सामने आया।

लंबी बीमारी के बाद 88 वर्ष की आयु में 29 जनवरी को जॉर्ज साहब का निधन हो गया। लेकिन इतिहास में जॉर्ज साहब को एक ऐसे नेता के तौर पर याद किया जाएगा जो फुटपाथ से संघर्ष करता हुआ सत्ता के शिखर तक पहुंचा। जिसने भारतीय राजनीति की दिशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जिसने दक्षिण भारत में जन्म लिया लेकिन राजनीतिक कर्मभूमि उत्तर भारत को बनाया। और इतिहास उन्हें एक ऐसे नेता के तौर पर भी याद करेगा जिसने विरोधियों को हमेशा परास्त किया लेकिन वो अपने ही लोगों से मात खा बैठा।

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