बिहार में फेमस है इस गाँव की काली पूजा, जहां कभी गुरुदत्त आये थे नाटक सीखने

तिरहुत के इलाके में काली की पार्थिव प्रतिमा की पूजा सबसे पहले दरभंगा के चनौर गांव में शुरु हुई। यहां हर साल पार्थिव प्रतिमा की पूजा के साथ न केवल मेला लगता था, बल्कि यहां का सांस्कृतिक इतिहास भी बेहद समृद्ध है। चनौर की दो बेटी महारानी (तिरहुत और सौरिया) और एक बेटी रानी (राजनगर) बनी। यही वो जगह है जहां प्रसिद्ध गायक केएल सहगल ने पहली बार “बाबुल मेरा नेहरा छूटा जाये..” गाया था, जिसे बाद में फिल्म में उपयोग किया गया।

काली पूजा के दौरान चनौर गांव में आयोजित होनेवाले नाटक का इंतजार तो लोग साल भर करते थे। यहां का नाटक कितना समृद्ध था, यह इसी से पता चलता है कि प्रख्यात फिल्मकार गुरुदत्त भी प्रकाश संरचना की बारीकी समझने चनौर (झंझारपुर सर्किल) आये थे। उन्होंने दरभंगा के चनौर गांव में तीन माह तक नाटक कार्यशाला में भाग लिया था। इस संबंध में महान फिल्‍मकार गुरुदत्त खुद लिखते हैं कि उन्होंने फिल्मों में प्रकाश व्यवस्था की सीख चनौर (दरभंगा के झंझारपुर सर्किल) में होनेवाले नाटकों से ली है।

चनौर गांव के नाटकों की आखिरी पीढी के सबसे मजबूत हस्ताक्षर छत्रानंद सिंह झा हैं। छत्रानंद सिंह झा पटना आकाशवाणी में बटुक भाई के नाम से प्रसिद्ध हुए और मैथिली के उदघोषक के रूप में इन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनायी है। अब चनौर पर नाटक नहीं होता है…

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *