किस्सा बिहार का… होली में हमारे घर पर चूल्हा नहीं जलता है, ना पुआ-खीर पकता है

नमस्कार किस्सा बिहार का…में आप तमाम लोगों का स्वागत है. कल बिहार सहित पूरे देश में होलिका दहन धूमधाम से मनाया जाएगा वहीं परसों रंगों का पर्व होली खेला जाएगा. इस अवसर पर डेली बिहार डॉट कॉम आप तमाम लोगों के लिए एक नई कहानी लेकर आया है. यह होली विशेष कहानी है. कहानी की शुरुआत करने से पहले आप तमाम पाठकों को होली की बहुत-बहुत बधाई. एक और होली जहां रंगों का पर्व है तो दूसरी ओर इस पर्व को भोजन का भी पर्व कहा जाता है. इस दिन पुआ मालपुआ, खीर, दही बारा, सहित अन्य पकवान बनाने की परंपरा रही है.

क्या आप जानते हैं कि बिहार में कई ऐसे गांव हैं जहां हजारों परिवार इस दिन अपना चूल्हा तक नहीं जलाते हैं. आसान भाषा में कहा जाए तो होली के दिन इन लोगों के घर में चूल्हा जलाने की परंपरा नहीं है. ना तो इनके घर में खीर बनता है और ना पुआ मालपुआ. आइए जानते हैं इसके पीछे की कहानी. कब से चली आ रही है यह परंपरा. आपको सब कुछ डिटेल में बताएंगे.

बिहार के दरभंगा जिले के निवासी पवन कुमार झा बताते हैं की मेरे गांव का नाम कन्हई है. हम लोग मैथिल ब्राह्मण हैं. पैनचोभे भिट्टी हम लोगों का मूल है. भगवान धर्मराज हमारे कुलदेवता हैं. हमारे यहां आज भी होली के अवसर पर चूल्हा नहीं जलाया जाता है. किसी तरह का पकवान नहीं बनता है. यह परंपरा सदियों से चली आ रही है. इसके पीछे का तार्किक कारण क्या है वह तो नहीं पता. लेकिन आधुनिकता के इस दौर में भी लोग इस बात को मान रहे हैं.

पवन झा बताते हैं कि मुझे आज भी याद है कि बचपन में जब हम लोग गुवाहाटी में रहा करते थे तुमा एक रोज पहले ही खीर पुआ पका लिया करती थी. शहर में चौकी गांव से अधिक मेहमान मिले-जुले आते हैं इसलिए मां मीट चावल भी बनाती थी.

एक बार की बात है कि हमारी बड़ी दादी मां अर्थात पापा की दादी मां होली के अवसर पर गुवाहाटी में थी. उन्होंने देखा कि होली के दिन मां चूल्हा जलाकर खाना पका रही है तो वह आग बबूला हो उठी. उन्होंने पूरे घर को आसमान पर उठा लिया. मां कुछ ना बोली चुपचाप सुनती रही.

होली के बाद मैंने दादी मां से पूछा कि आखिर इस परंपरा के पीछे का कारण क्या है. का दो टूक जवाब था कारण मुझे नहीं पता लेकिन पूर्वज करते आ रहे हैं तो हमें भी करना चाहिए. फिर मैंने उससे पूछा अगर चूल्हा नहीं जलता है तो क्या गांव के लोग उस दिन कुछ खाते नहीं है. उनका जवाब बहुत ही रोचक और मजेदार था.

आस पड़ोस के लोग हमारे घर में उस दिन खीर पूरी पूरा सहित अन्य सामग्रियां बनाकर भेजती है. मतलब. मतलब साफ है गांव के लोगों को पता है कि गांव में किसके घर होली फगवा होता है और किसके घर नहीं होता है. हमारे यहां देवता पितर को भी पुआ और खीर नहीं चढ़ाया जाता.

दादी अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि गांव में कई ऐसे पर्व हैं जिसका वेद और ग्रंथ में कोई उल्लेख नहीं है लेकिन हम मनाते हैं. हमारे यहां घड़ी पावन होता है. इस दिन हम आसपास के लोगों के बीच खीर पुरी का वितरण करते हैं. सामाजिक मान्यताओं के अनुसार जिनके घर में हम खीर पूरी देते हैं वही लोग होली के दिन हमारे यहां देने आते हैं.

बड़ी दादी गुजर चुकी है. गांव के लोग आज भी इस नियम का पालन करते हैं. लेकिन अब इसमें थोड़ा सा बदलाव आया है. पवन झा कहते हैं कि आज भी लोग घर के मुख्य चूल्हे को तो नहीं जलाते हैं. लेकिन मीट मछली अलग चूल्हे पर बनाया जाता है. मुझको आश्चर्य लगता है जब आज भी इस तरह की परंपराओं का पालन होते हुए देखता हूं.

गांव की एक वृद्ध महिला कहती है कि आज भी हम लोग बेटी के ससुराल में होली का भार अर्थात जो संदेश होता है तो होली से पहले नहीं बल्कि होली के बाद भेजते हैं. क्योंकि होली से पहले हमारे यहां खीर पूरे नहीं बन सकते. चैत के महीने में कभी भी अपनी सुविधा के अनुसार पुआ पकवान बनाकर भेजा जाता है.

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