ऐतिहासिक है धारा 370 का हटना, सच में मोदी है तो मुमकिन है

ये क़दम निश्चित ही ऐतिहासिक और अभूतपूर्व तो है. इससे पहले किसी भी सरकार ने अनुछेद 370 को इस क़दर छेड़ने का साहस या दुस्साहस कभी नहीं किया था. एक वजह यह भी थी कि बाक़ी सरकारें संवैधानिक तरीक़े से इससे पार पाना चाहती थी/ या पार पाने का दिखावा करती थी जबकि इस सरकार ने संविधान के लूप होल्ज़ का फ़ायदा उठाकर ऐसा कर दिया. ठीक वैसे ही जैसे आर्टिकल 35-a लाया गया था. साल 1954 में नेहरु मंत्रिमंडल ने राष्ट्रपति आदेश के ज़रिए इस आर्टिकल को लागू किया था, अब मोदी मंत्रिमंडल ने भी राष्ट्रपति आदेश के ज़रिए ही इसे हटा दिया है.

इस आदेश के बाद राज्य के पुनर्गठन की राह भी अब आसान हो चली है जो संघ की पुरानी चाहत है. लेकिन मूल सवाल वहीं खड़ा है. कश्मीर का जो विलय कुछ तकनीकी ख़ामियों के चलते ‘विशेष’ माना जाता है, क्या वह सारी कमियाँ सिर्फ़ एक राष्ट्रपति आदेश से दूर हो जाएँगी? इस आदेश से आर्टिकल 35a तो समाप्त हो जाएगा लेकिन कश्मीर को मिले कई अन्य विशेषाधिकार बरक़रार रहेंगे. पुनर्गठन का मुद्दा भी न्यायिक और संवैधानिक समीक्षा से गुज़रे बिना एक ऐसा तानाशाही फ़ैसला बन पड़ेगा जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का पक्ष कमज़ोर ही करेगा. कश्मीर समस्या भारत-पाकिस्तान के बीच की द्विपक्षीय समस्या है, यह तो भारत भी आधिकारिक तौर से मानता ही है.

इन तकनीकी पहलुओं के अलवा सबसे अहम बात है घाटी का माहौल. ये किसी से छिपा नहीं है कि घाटी में अलगाववाद की आग आज अपने चरम पर है. कश्मीर का आम युवा ख़ुद को भारत से उस तरह जुड़ा हुआ नहीं मानता जैसे अन्य भारतीय मानते हैं, उसके मन में अलगाव की भावना है और वो ख़ुद को एक भारतीय नहीं बल्कि सिर्फ़ एक कश्मीरी आयडेंटिफ़ाई करता है. उसके मन में भारत के प्रति कई सवाल हैं, वो ख़ुद को ग़ुलाम समझता है, मानता है कि भारत ने सेना के दम पर उसकी गर्दन दबोच के रखी है. ऐसी मनोदशा वाले युवाओं के बीच इस फ़ैसले के क्या परिणाम होंगे, अंदाज़ा लगाना ज़्यादा कठिन नहीं है.

अलगाववादियों को इस फ़ैसले और ख़ास तौर से इस फ़ैसले को लागू करने के तरीक़ों के चलते पर्याप्त सामग्री मिल जाएगी कि वो कश्मीर में एक और पीढ़ी को हिंसक जंग में झोंक डालें. अलगाव के जो अंगारे वहाँ धधक रहे थे उन्हें हवा देने में अलगाववादी कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. कश्मीर के चप्पे-चप्पे पर सेना की तैनाती भी आख़िर कब तक रहेगी? अभी तो वहाँ टीवी, इंटर्नेट, मोबाइल और फ़ोन तक बंद हैं लेकिन ये कभी तो खोलने पड़ेंगे, बन्दूकें कभी तो नीचे करनी होंगी, पहरा कभी तो हटाना होगा. क्योंकि पहरों और बंदूक़ों से ज़मीनें जीती जा सकती हैं, पहाड़ जीते जा सकते हैं, झील जीती जा सकती हैं लेकिन लोग नहीं जीते जाते. इस फ़ैसले से कश्मीर जीता जा सकता है लेकिन कश्मीरी नहीं. इसलिए इस फ़ैसले को साहसिक बताने से पहले एक बार ठिठक कर सोचिएगा ज़रूर कि ये फ़ैसला दुस्साहसिक भी साबित हो सकता है.

लेखक ; राहुल कोटियाल, पत्रकार

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