पुण्यतिथि : बाबा नागार्जुन और मेरी पत्रकारिता

बाबा नागार्जुन और मेरी पत्रकारिता (पुण्‍यतिथि आज)

5 नवंबर, 1998 की वो सुबह कभी नहीं भूल सकता। प्रेस छायाकार था मैं। दरभंगा मे शायद इकलौता। मेरी पत्रकारिता की शुरुआत यहीं से हुई। उस वक्‍त सोचा नहीं था कि मेरी आखरी तसवीर बाबा नागार्जुन (यात्री) का पार्थिव शरीर होगा। 5 नवंबर, 1998 की सुबह करीब 5 बजे पत्रकार कृष्‍ण कुमार का फोन आया कि बाबा नहीं रहे। एक तरफ फोन रखा और दूसरी तरफ अपनी लूना की ओर भागा। चल मेरी लूना जब भी कहता था मानो वो पूछ लेती हो कृष्‍ण कुमार तो नहीं बैठेंगे। क्‍योंकि उस दिन भी कृष्‍ण कुमार के घर तक वो अच्‍छी तरह चल कर गई, लेकिन वहां से आगे जाने को तैयार नहीं।

अंतत: कृष्‍ण कुमार दूसरी सवारी से गए और हम अपनी लूना से। जब हम बाबा के घर पहुंचे तो उनके पार्थिव शरीर के पास परिवार के अलावा केवल दरभंगा के सांसद फातमी ही बैठे थे, बाद में दरभंगा के जिलाधिकारी और मधुबनी के पूर्व सांसद भोगेंद्र झा आए। आठ बजते बजते तो भीड लग गई। यह बात मेरे पिता हमसे हमेशा कहते थे कि बाबा के जाने के बाद पता चलेगा कि वो क्‍या हैं। यह बात मेरे पिता उस सवाल के उत्‍तर में दिया करते थे कि बाबा अगर इतने बडे कवि हैं तो इस हालत में क्‍यों जी रहे हैं। बाबा का आखरी समय बहुत उपेक्षित रहा। लेकिन मेरे पिता की बात सही निकली जो जिंदा रहते बाबा को देखने नहीं आता था वो भी उनके लिए आंसू बहाता दिखा।

मेरे लिए सबसे बडी समस्‍या थी बाबा की तसवीर पटना पहुंचाना। उस वक्‍त दरभंगा मे तकनीक बहुत पीछे था। फिर भोगेंद्र झा ने एक समस्‍या खडी कर दी। उन्‍होंने हमें बुलाकर कहा कि बाबा को राजकीय सम्‍मान दिलाना है, सो फोटो लेने में जल्‍दबाजी मत करो। फातमी ने इस पर बस इतना कहा कि लालू जी जगते हैं तो बात करते हैं। मेरे लिए दुविधा कि अगर उस घोषणा का इंतजार करेंगे तो पटना समय पर फोटो पहुंचना संभव नहीं, क्‍योंकि विधिवत घोषणा 10-11 बजे पहले संभव नहीं होगा। ऐसे में मेरा काम कठिन होता जा रहा था, कारण मुझे लैब में कम से कम एक घंटा लगता फिर तैयार हो कर पटना जाने का मतलब था छह से सात घंटा। मैंने आखिर आठ बजे बाबा के कमरे में रखा तिरंगा देखा और फिर तिरंगे में लिपटे बाबा की तसवीर ली और लैब की ओर भाग निकला। यह बात केवल तीन लोगों को ही पता चला। मैंने तिरंगे मे लिपटे बाबा की करीब दर्जन भर कॉपी तैयार की और बैग मे लेकर सीधा बस पर बैठ गया।

उम्‍मीद थी यह तसवीर तो सब अखबार छाप ही देगा। सब का अर्थ यहां उन अखबारों से है जो फोटो के बदले पैसे का भुगतान करता था,लेकिन बस स्‍टेंड से सीधा इंडियन नेशन कार्यालय पहुंचा और आर्यावर्त को फोटो देकर अपने बिहारीपन का निर्भाह किया। वहां से आज और फिर टीओआई गया। तब तक समय करीब 4 बज गए थे और पहला संस्‍कारण बहुत जगह छपने लगा था। मैंने जैसे ही टीओआइ के संपादक अजित झा को फोटो दिया ओ घडी की ओर देखे, फिर पूछा कितने बजे चले दरभंगा से, मैंने कहा नौ बजे। वे हंसने लगे और मेरी पीठ ठोक दी। वो एक फोटोग्राफर की जीत जरूर थी, लेकिन मैं इस जीत से डरा हुआ था। उन्‍होंने मुझे हर एंगिल का फोटो देने को कहा।

मेरे पास बस तीन एंगिल के थे। मैंने उन्‍हें दो एंगिल का दिया। क्‍योंकि एक एंगिल एसटी के लिए रखना था। उन्‍होंने दोगुना पैसा आफर किया, लेकिन मैंने नहीं दिया। मैं वहां से हिंदुस्‍तान और फिर प्रभात खबर पहुंचा। किसे पता था कि यह तसवीर मेरी आखरी तसवीर होगी, क्‍योंकि इस तसवीर के बाद मैं फिर कोई तसवीर अखबार के लिए नहीं ले पाया। 1999 में प्रभात खबर मे बतौर उपसंपादक नौकरी शुरू कर दी। बाबा की इस अंतिम तसवीर को आप इ’समाद पर देख सकते हैं।

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