बंद हो गया नंदन और कादिम्बनी, हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप ने दो पत्रिकाओं को बंद करने का ऐलान किया

अब नहीं मिलोगे मेरे बचपने के साथी नंदन-कादम्बिनी। सही से याद नहीं है लेकिन शायद वर्ष 1989-90 ही था जब मेरा दाखिला रेड रोज पब्लिक स्कूल में हुआ। और उसी समय पहले पहल नंदन, चंपक, बालहंस, लोटपोट जैसे बाल साहित्य को देखा। पढ़ने तो आता नहीं था लेकिन इन किताबों में जो कार्टून कैरेक्टर थे उनकी फोटो देखकर बालमन के आनंद का क्या कहना!

वर्ष 1996 तक उसी विद्यालय में रहा। हाँ इस दौरान स्कूल का नाम बदलकर रेड रोज हैप्पी स्कूल हो गया, जो अब तक है। सच कहिये तो पब्लिक से हैप्पी हुए स्कूल में बच्चों के हैप्पी रहने के कई कारण थे। और जो सबसे बड़ा कारण था वह था Pramod सर का सजाया, सँवारा और संरक्षित किया पुस्तकालय। उस पुस्तकालय में बच्चों के पढ़ने के लिए असँख्य किताबें थी। नियमित रूप से हम बच्चों को नंदन, चंपक, बालहंस पढ़ने भी मिलता।

तब तक तो उन बाल साहित्य के कई पात्र हमारे मित्र भी बन गए थे। खैर 1996 में विद्यालय बदला तो अचानक से ये अदृश्य मित्र भी खत्म हो गए। अब कभी कभार घर में बालहंस खरीदा जाता लेकिन नंदन चंपक तो शायद कभी नहीं। उम्र बदली, सोच बदला, आत्मनिर्भर बनने की ओर भी बढ़ा तो अब कादम्बिनी पढ़ने शौक हो गया। कई बरस तक कादम्बिनी से यह नाता बरकरार रहा। और 2011 में तब खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब अपनी प्रिय कादम्बिनी में मेरे नाम की रचना छपी।

लेकिन कल सुना कि अब हमारे बचपन का प्रेम नंदन और कादम्बिनी का प्रकाशन बंद हो गया है। सच कहिये तो मन मायूस है लेकिन यह तो होना ही था। आखिर हो भी क्यों न जो समाज अपने को साहित्य से जोड़कर रख ही नहीं रहा है वहां पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन क्यों न बंद हो। आज हमारे आपके बच्चे नंदन और कादम्बिनी का नाम भी नहीं जानते । उन दिनों ट्रेन की लंबी यात्रा में हर बच्चे के पास कोई न कोई बाल साहित्य होता। आज सबके हाथ में मोबाइल है। उसमें गेम है, कार्टून है लेकिन नंदन जैसी कहानियां नहीं है।

सच कहिये तो ये ऐसी पत्रिकाएं थी जिसकी अंगुली अगर बचपन में पकड़ ली जाए तो तो फिर वो बच्चा किशोरावस्था के मोड़ पर भी साहित्य से जुड़ा रहता था और जीवन के हर उम्र में साहित्य सागर में गोते लगाता था। फिर भी उम्मीद करें कि आज के तकनीक और प्रौद्योगिकी के युग में हमारा नंदन, चंपक, बालहंस, कादम्बिनी भी कम से कम डिजिटल प्लेटफार्म पर उपलब्ध हो। हम उसे पढ़ने के लिए बच्चों को प्रेरित करें। उन्हें सब्सक्राइब कर दें।

-Priyadarshan Sharma

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