नेतरहाट स्कूल के पुराने छात्र देते थे 20 हजार महीना तब चलता था वशिष्ठ बाबू का घर

रविशंकर उपाध्याय
अशोक राजपथ स्थित कुल्हरिया कांप्लेक्स के तीसरे तल्ले पर स्थित कमरा नंबर 302. महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह और उनके मंझले भाई अयोध्या नारायण सिंह का परिवार इसी मकान में किराया लेकर पिछले दस सालों से रह रहा है. जैसे ही आप कमरे में प्रवेश करते हैं, दाहिनी ओर वशिष्ठ बाबू की कुर्सी और उनका टेबल है. बायीं ओर किताबों से भरा टेबुल और यहीं से दाहिने उनके कमरे में प्रवेश करते ही दर्जनों प्रशस्ति पत्र टंगे हुए हैं. वहीं उनका बिस्तर है जिस पर उनकी बांसुरी, रामचरितमानस, भगवद गीता और कोने में उनके व्यक्तित्व की पहचान टोपी पड़ी हुई है. अयोध्या नारायण सिंह कहते हैं कि हमारे परिवार को नेतरहाट ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन ने बड़ी मदद दी है. 2013 से अबतक लगातार हर महीने की शुरुआत में ही 20 हजार रुपये आ जाते थे. इसके अलावा उन्हें किसी ने मदद नहीं की. सेना में सूबेदार पद से रिटायर हुए अयोध्या सिंह कहते हैं कि उसी पैसे से इस फ्लैट का किराया चुका रहे थे, वशिष्ठ जी का इलाज चल रहा था. उनकी दवाइयां हर महीने पहुंच रही थी.

जब डॉ नाथ ने छाती ठोक कर कहा, बाप रे, इतना मेधावी स्टूडेंट मैंने आजतक नहीं देखा

वशिष्ठ बाबू के प्रतिभा के किस्से अबतक इतने प्रकाशित हो चुके हैं कि शायद ही कोई पक्ष ऐसा होगा जो लोग नहीं जानते. कुल्हरिया कॉम्पलेक्स में ही हमें नेतरहाट ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन के सदस्य और 1957 से 1963 ई तक साथ में पढ़े नरेंद्र नारायण पांडे मिल गये. वे कहते हैं कि छह साल हमलोग साथ में पढ़े. नेतरहाट में हमलोग आश्रम की तरह पढ़ते थे. परिसर की सफाई करते थे, खाना परोसते थे, बर्तन की सफाई करते थे और शौचालय को भी साफ सुथरा रखते थे. वशिष्ठ हमारे साथ 1957 से 63 तक थे. नेतरहाट पहुंचते ही वे शिक्षकों की नजर में आ गये थे, क्योंकि वे टॉप करते थे. गणित और साइंस का तो छोड़ ही दीजिए, हिंदी और अंग्रेजी में वे काफी अच्छे थे. हमलोगों जिस गणित की किताब, जिसे चक्रवर्ती कहते थे, उसे बनाने में पसीने छूटते थे. उसको वे नौवें क्लास में ही दो बार खत्म कर चुके थे. अल्जेबरा, मैथेमैटिक्स में ऐसी शब्दावलियों का इस्तेमाल करते थे, जो हमने ग्रेजुएशन में जाना था. हायर सेकेंड्री करने के दौरान वे कॉलेज तक का कोर्स कंप्लीट कर चुके थे. एक बार उनकी तबीयत खराब हो गयी तब भी पढ़ते रहते थे. ऐसा पढ़ाकू न मैंने जीवन में कभी देखा था और न देख सकूंगा.

पटना विश्वविद्यालय ने वशिष्ठ बाबू के लिए बदल दिया था नियम
बीएन कॉलेज से रिटायर्ड प्रो डॉ पांडे आगे बताते हैं कि हम तीन लोग साइंस कॉलेज पढ़ने के लिए आये थे. मैं, मनोज कुमार और वशिष्ठ नारायण सिंह. मनोज आइएएस में एमपी कैडर में चले गये. वशिष्ठ बाबू ने पढ़ाई के दौरान एक शिक्षक से एक प्रश्न को देखकर कहा कि यह ऐसे नहीं हल होगा. शिक्षक को लगा कि यह हमको हूट कर रहा है. वे विभाग के हेड डॉ आरकेपी सिन्हा के पास पहुंचे. आरकेपी सिन्हा ने साइंस कॉलेज के प्राचार्य डॉ नागेंद्र नाथ से शिकायत की. डॉ नाथ ने वशिष्ठ बाबू को सबसे कठिन प्रश्न दिया और वशिष्ठ बाबू ने उसे मिनटों में हल कर दिया. इसके बाद डॉ नाथ ने अपनी छाती ठोकी और कहा कि ऐसा स्टूडेंट मैंने आजतक नहीं देखा. ये वे डॉ नाथ थे जो नाथ रमण इफेक्ट में मशहूर साइंटिस्ट रह चुके थे. उस जमाने में एक अलग समां था. वशिष्ठ बाबू की प्रतिभा को देखते हुए बीएससी मैथ के पहले साल में ही बीएससी ऑनर्स की कंप्लीट डिग्री दे दी गयी थी. इसके लिए पटना विश्वविद्यालय ने अपना नियम बदल दिया था. जब ये एमएससी में थे तो डॉ प्रो केली के साथ अमेरिका चले गये. वे ट्रेन से कोलकाता जा रहे थे तो मैं मिलने भी गया था.

एक शोध पत्र गायब होने के बाद उनकी मानसिक स्थित खराब हो गयी थी

उन्हीं के सहपाठी रहे डॉ विरेंद्र कुमार कहते हैं कि वे जब विदेश चले गये तो हमेशा ऊंचे पदों पर ही रहे. नासा में साइंटिस्ट थे. अपने देश में आये तो इंडियन साइंस इंस्टीट्यूट कोलकाता और आइआइटी कानपुर में ऊंचे पदों पर रहे. उनका एक शोध पत्र चोरी चला गया था. इसके बाद उनकी मानसिक स्थिति खराब हो गयी थी. वह शोध पत्र शायद साइंस का परिदृश्य बदल सकता था. इसके बाद उनकी तबीयत खराब होती रही. रांची के डॉ डेविस इंस्टीट्यूट में इनका इलाज भी कराया गया था. डॉ पांडे दिलचस्प किस्सों का हवाला देते हुए कहते हैं कि एक बार मिलने पर अखबार में एक ग्राफिक बनाकर मुझसे कहने लगे कि देख, नरेंद्र हई ई ध्रुवतारा ह और हई वीएन सिंह. उन्होंने अपने को उस सर्किल में मुख्य तारा दिखाया था. यह तारा हमें छोड़कर हमेशा के लिए चला गया.

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *