पटना छठ घाट पर गमछा बिछाने से छात्रों के पास दो-तीन महीने के नास्ते का इंतजाम हो जाता था

उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही महापर्व छठ का समापन हो चुका है। लोग अपने-अपने घर पहुंच चुके हैं। पटना का छठ घाट देश भर में प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि यह पर्व प्रसाद के लिए भी काफी फेमस है। दिल्ली-मुम्बई में रह रहे लोगों की माने तो उन्हें अपने-अपने ऑफिस में छठ की छुट्टी एप्रुवल के समय इस बात का यकीन दिलाना होता है कि वे वापस आने पर उनके लिए ठेकूआ लेकर आएंगे। शायद यही कारण है कि पर्व करने वाले से ज्यादा दूसरों के घर में प्रसाद पहुंचाया जाता है। वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र अपने छात्र जीवन को याद करते हैं और एक दिलचस्प कहानी शेयर कर रहे हैं।

महज 15-20 साल पहले तक पटना में सुबह की छठ के वक़्त ऐसे दृश्य आम हुआ करते थे, 1997 की बात बताता हूँ। तब मैं अशोक राजपथ के कुनकुन सिंह लेन में रहकर छोटी बड़ी परीक्षाओं की तैयारी करता था और मित्र Akhilesh Kumar का कमरा गुलबी घाट के पास था। मैं वैसे भी उसके कमरे की तरफ चला जाता था। और कुछ नहीं तो गंगा स्नान का लोभ रहता था। उस साल छठ पर घर नहीं जा पाया तो वहीं चला गया। सुबह के अर्घ के वक़्त देखा कि उस इलाके में रहने वाले लड़कों ने सड़कों के किनारे टेबल लगा दिया है और उस पर इसी तरह का गमछा भी बिछा दिया है। अब जो लोग घाट से लौटते एक ठेकुआ, एक पुडुकिया, कोई फल डालते चलते। इस तरह हर छात्र के पास दो तीन महीने के नास्ते का इंतजाम हो जाया करता था। बाद में अखिलेश ने बताया यह एकतरफा मामला नहीं होता है, छठ से पहले इस इलाके के छात्र ही जाकर घाट साफ कर दिया करते हैं। ऐसे में प्रसाद पाना तो बनता है। उस वक़्त यह सिस्टम मुझे बहुत अच्छा लगा था। आज सड़क पर यह गमछा बिछा देखा तो वही बात याद आ गयी।

पुष्य मित्र के इस फेसबुक पोस्ट पर कई लोगों ने भी अपने अपने विचार रखें हैं। Jitendra Das कहा जाता है प्रसाद मांगकर खाना ही चाहिए। मैंने घाट पर सम्मानिय लोगों को प्रसाद मांगकर खाते देखा है। लोग बहुत ही प्यार से यथासंभव देते भी हैं। Rajeev Sharma मैंने भी बचपन से ही घाट किनारे, रास्तों में टोकरियाँ, गमछे बीछे देखता था। किसी और पर्व के विषय में मैंने इतनी श्रद्धा अब तक तो नहीं देखी है कि लोग निःसंकोच प्रसाद मांग कर खाएं और देने वाला भी मांगने वाले को हीन दृष्टि से न देखे। मेरे ख्याल से पूरी दुनिया में मांगने और पाने के संदर्भ में ये एकलौता उदाहरण है।

Punj Prakash अब ज़माना बदल गया है। अब बिहार में गमछे पर गाना बनता है – सैयां जी दिलवा मंगेलन, गमछा बिचाइके। और अच्छे दिन इतने मंहगें हैं कि कोई दूसरे को क्या ख़ुद को अच्छे से खिला पिला ले वही काफी है। Himkar Bharadwaj उसी के ठीक बगल में घघाघाट जहां मेरा बचपन बीता सुबह सुबह हम लोग व्रतियों को चाय पिलाया करते थे और प्रसाद केलिए दो लोग चादर पकड़ के खड़े रहते थे और उसमें सभी प्रसाद दे दिया करते थे।

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