हिन्दी के प्रथम उपन्यासकार थे बिहार के देवकीनंदन खत्री, चंद्रकांता आज भी याद है

PATNA : बिहार के लिए गौरव की बात है कि संस्कृत साहित्य में जहां गद्य और उपन्यास के पहले लेखक बिहार के बाणभट्ट हुए, वहीं हिन्दी के भी प्रथम गद्यकार एवं उपन्यासकार समस्तीपुर बिहार के ही देवकीनंदन खत्री थे। वे 19वीं सदी के एक प्रखर गद्य लेखक, उपन्यासकार के साथ समाजसेवी भी थे। बनारस में उन्होंने लहरी प्रेस की स्थापना की थी। वहीं से उन्होंने मासिक पत्रिका सुदर्शन का प्रकाशन किया था। उन्होंने प्रसिद्ध उपन्यास चंद्रकांता का लेखन किया था। वे हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी और संस्कृत के विद्वान थे।

बाबू देवकीनन्दन खत्री (18 जून 1861 – 1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोदना, कटोरा भर, भूतनाथ जैसी रचनाएं की। ‘भूतनाथ’ को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूरा किया। हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में उनके उपन्यास चंद्रकांता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया। इस किताब का रसास्वादन के लिए कई गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी। बाबू देवकीनंदन खत्री ने ‘तिलिस्म’, ‘ऐय्यार’ और ‘ऐय्यारी’ जैसे शब्दों को हिंदीभाषियों के बीच लोकप्रिय बनाया। जितने हिन्दी पाठक उन्होंने (बाबू देवकीनन्दन खत्री ने) उत्पन्न किये उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं।

Punyatithi of devkinandan khatri

बिहार में जन्में खत्री जी के पिता का नाम ‘लाला ईश्वरदास’ था। कहा जाता है कि खत्री जी के पूर्वज पंजाब के निवासी थे और मुगलों के राज्य काल में ऊँचे पदों पर कार्य करते थे। महाराज रणजीत सिंह के पुत्र शेरसिंह के शासन काल में लाला ईश्वरदास काशी (आधुनिक बनारस) आकर बस गये। देवकीनन्दन खत्री जी की प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू-फ़ारसी में हुई थी। बाद में उन्होंने हिन्दी, संस्कृत एवं अंग्रेज़ी का भी अध्ययन किया। आरंभिक शिक्षा समाप्त कर वे ‘टेकारी इस्टेट’ पहुँच गये और वहाँ के राजा के यहाँ कार्य करने लगे। बाद में उन्होंने वाराणसी में एक प्रिंटिंस प्रेस की स्थापना की और 1883 में हिन्दी मासिक पत्र ‘सुदर्शन’ को प्रारम्भ किया।

कुछ दिनों बाद उन्होंने महाराज बनारस से चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका ले लिया था। इस कारण से देवकीनंदन की युवावस्था अधिकतर उक्त जंगलों में ही बीती थी। देवकीनन्दन खत्री बचपन से ही घूमने के बहुत शौकीन थे। इस ठेकेदारी के कार्य से उन्हें पर्याप्त आय होने के साथ-साथ घूमने फिरने का शौक़ भी पूरा होता रहा। वह लगातार कई-कई दिनों तक चकिया एवं नौगढ़ के बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की खाक छानते रहते थे। बाद में जब उनसे जंगलों के ठेके वापिस ले लिए गये, तब इन्हीं जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की पृष्ठभूमि में अपनी तिलिस्म तथा ऐय्यारी के कारनामों की कल्पनाओं को मिश्रित कर उन्होंने ‘चन्द्रकान्ता’ उपन्यास की रचना की। इन्हीं जगंलों और उनके खंडहरों से देवकीनन्दन खत्री को प्रेरणा मिली थी, जिसने ‘चंद्रकांता’, ‘चंद्रकांता संतति’, ‘भूतनाथ’ ऐसे ऐय्यारी और तिलस्मी उपन्यासों की रचना कराई, जिसने आपको हिन्दी साहित्य में अमर बना दिया। इनके सभी उपन्यासों का सारा रचना तंत्र बिलकुल मौलिक और स्वतंत्र है।

इस तिलस्मी तत्व में खत्री जी ने अपने बुद्धि-कौशल से ऐय्यारी वाला वह तत्व भी मिला दिया था, जो बहुत कुछ भारतीय ही है। यह परम प्रसिद्ध बात है कि 19वीं शताब्दी के अंत में लाखों पाठकों ने बहुत ही चाव और रुचि से खत्री जी के उपन्यास पढ़े और हज़ारों लोगों ने केवल इनके उपन्यास पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी। यही कारण है कि हिन्दी के सुप्रसिद्ध उपन्यास लेखक श्री वृंदावनलाल वर्मा ने खत्री जी को हिन्दी का ‘शिराज़ी’ कहा है।

बाबू देवकीनन्दन खत्री ने जब उपन्यास लिखना प्रारम्भ किया, उस समय में अधिकतर हिन्दू लोग भी उर्दू भाषा ही जानते थे। इस प्रकार की परिस्थितियों में खत्री जी ने मुख्य लक्ष्य बनाया, ऐसी रचना करना जिससे देवनागरी हिन्दी का प्रचार व प्रसार हो। यह इतना सरल कार्य नहीं था। किंतु उन्होंने ऐसा कर दिखाया। ‘चन्द्रकान्ता’ उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि उस समय जो लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे या केवल उर्दू भाषा ही जानते थे, उन्होंने केवल इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी इसी लोकप्रियता को ध्यान में रख कर उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए दूसरा उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ लिखा, जो ‘चन्द्रकान्ता’ की अपेक्षा अधिक रोचक था। इन उपन्यासों को पढ़ते समय पाठक खाना-पीना भी भूल जाते थे। इन उपन्यासों की भाषा इतनी सरल है कि पाँचवीं कक्षा के छात्र भी इन पुस्तकों को पढ़ लेते हैं। पहले दो उपन्यासों के 2000 पृष्ठ से अधिक होने पर भी, एक भी क्षण ऐसा नहीं आता, जहाँ पाठक ऊब जाएँ।

चन्द्रकान्ता (1888 – 1892): चन्द्रकान्ता उपन्यास को पढ़ने के लिये लाखों लोगों ने हिन्दी सीखी। यह उपन्यास चार भागों में विभक्त है। पहला प्रसिद्ध उपन्यास चंद्रकांता सन्‌ 1888 ई। में काशी में प्रकाशित हुआ था। उसके चारो भागों के कुछ ही दिनों में कई संस्करण हो गए थे। चन्द्रकान्ता सन्तति (1894 – 1904): चन्द्रकान्ता की अभूतपूर्व सफलता से प्रेरित हो कर देवकीनन्दन खत्री ने चौबीस भागों वाले विशाल उपन्यास चंद्रकान्ता सन्तति की रचना की। उनका यह उपन्यास भी अत्यधिक लोकप्रिय हुआ।

भूतनाथ (1907 – 1913) (अपूर्ण): चन्द्रकान्ता सन्तति के एक पात्र को नायक बना कर देवकीनन्दन खत्री जी ने इस उपन्यास की रचना की। किन्तु असामायिक मृत्यु के कारण वह इस उपन्यास के केवल छह भागों ही लिख पाये। आगे के शेष पन्द्रह भाग उनके पुत्र ‘दुर्गाप्रसाद खत्री’ ने लिख कर पूरे किये। ‘भूतनाथ’ भी कथावस्तु की अन्तिम कड़ी नहीं है। इसके बाद बाबू दुर्गाप्रसाद खत्री लिखित ‘रोहतास मठ’ (दो खंडों में) आता है ।

इसके कुसुम कुमारी वीरेन्द्र वीर उर्फ कटोरा भर ख़ून काजर की कोठरी अनूठी बेगम नरेन्द्र मोहिनी गुप्त गोदना खत्री जी की प्रमुख रचनाएं हैं।

चंद्रकांता से उत्साहित होकर आपने चंद्रकांता संतति, लिखना आरंभ कर दिया जिसके कुल 24 भाग हैं। दस वर्षो में ही बहुत अधिक कीर्ति और यश संपादित कर चुकने पर और अपनी रचनाओं का इतना अधिक प्रचार देखने पर सन्‌ 1898 ई में आपने अपने निजी प्रेस की स्थापना की। आप सदा से स्वभावत: बहुत ही ‘लहरी’ अर्थात् मनमौजी और विनोदप्रिय थे। इसीलिए देवकीनन्दन खत्री ने अपने प्रेस का नाम भी ‘लहरी प्रेस’ रखा था। देवकीनन्दन खत्री के उपन्यासों में कई ऐय्यारों और पात्रों के जो नाम आए हैं वे सब आपने अपनी मित्रमंडली में से ही चुने थे और इस प्रकार उन्होंने अपने अनेक घनिष्ट मित्रों और संगी साथियों को अपनी रचनाओं के द्वारा अमर बना दिया था।

अफसोस यही है कि देवकीनन्दन खत्री अधिक आयु तक जीवित नहीं रह पाए। 1 अगस्त, 1913 को 52 वर्ष की अवस्था में ही काशी में इस दुनिया से मुख मोड़ लिया। यदि वो लम्बी आयु तक जीवित रहते तो निश्चित ही हिंदी के लिए और भी बेहतर कर गए होते। उनकी उपलब्धियों को याद करते हुए भावपूर्ण श्रद्धांजलि व कोटि कोटि नमन।

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