राजीव गांधी कोई राजनीति के सन्त नहीं थे, मां के मरने पर गिफ्ट में सत्ता मिलना लोकतंत्र नहीं है

PATNA : राजीव गांधी कोई राजनीति के सन्त नहीं थे। आजकल जो उन्हें सन्त बनाने पर तुले हैं, वे या तो भोले हैं या राजनीति की दुनिया के मक्कार। यह ठीक है कि उन्होने नवोदय विद्यालय की स्थापना की, जिसका मैं भी छात्र रहा हूं। मगर उसी नवोदय विद्यालय में रहते हुए मैं वीपी सिंह के बोफ़ोर्स वाले अभियान से प्रभावित भी रहा। मुझे एक पल के लिये भी नहीं लगा कि राजीव गांधी के बनाये नवोदय में रहते हुए, मुफ्त में पढ़ते हुए मुझे उनका विरोधी नहीं होना चाहिये। क्योंकि यही लोकतंत्र की खूबसूरती है, हां यह भी सच है कि उस वक़्त मेरे किसी राजीव गांधी समर्थक मित्र ने मुझे गद्दार नहीं कहा, और यह नहीं कहा कि खाते हो राजीव का दिया और गाते हो उसके विरोधी की। क्योंकि तब तक वह लोकतांत्रिक खूबसूरती बची हुई थी, जिसका खात्मा हाल के वर्षों में हुआ है। जब पीएम के विरोधी को राष्ट्र्द्रोही कहने की परम्परा शुरू हुई है।

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हम सब जानते हैं कि राजीव की सत्ता गिफ्ट में मिली। वह कतई लोकतंत्र नहीं था। मां की हत्या के बाद बेटे को उसके बदले देश की सबसे उंची कुर्सी पर बिठा देना तो लोकतंत्र नहीं है न। हां, यह जरूर हुआ कि बाद में हुए चुनाव में देश के वोटरों ने राजीव को अपार बहुमत दिया, 400 से अधिक सीटें दीं। यह एक ऐसा ख्वाब है जिसके बारे में संघी कभी सोच ही नहीं सकते। उनके विभाजनकारी राजनीति की लिमिट 200-250 सीट है, जब तक हिन्दुत्व में और रेडिकल नेशनलिज्म में अच्छे दिन की उम्मीदों का तडका न लगायें, वे 272 के पार नहीं जा सकते। हम लाख नेहरू-गांधी परिवार को गाली दें, मगर देश इन पर स्वाभविक रूप से कट्टर हिन्दुत्व के मुकाबले अधिक भरोसा जताता है। क्योंकि फर्जी ही सही, मगर उसे इस परिवार के नाम से उस गांधीवाद की खुशबू आती है जिसके भरोसे देश बिना हथियार के आज़ाद हो गया था।

हालांकि मैं आज भी राजनीति में वंशवाद का कट्टर विरोधी हूं। मगर यह मोदी जी का अहसान है कि कल तक मेरी पसंद की सूची में आखिरी स्थान पर रहे राहुल आज बरदास्त करने लायक हो गये हैं। इसकी वजह रिलेटिविटी का वह सिद्धांत है जिसके मुताबिक अगर आपके सामने बहुत बुरा विकल्प हो तो आप थोड़े कम बुरे विकल्प से काम चलाने के बारे में सोचने लगते हैं।

यह क्या सच नहीं है कि सिख दंगे के वक़्त राजीव ने बड़ा पेड़ गिरता है वाला मूर्खतापूर्ण और सामन्ती किस्म का बयान नहीं दिया था, अयोध्या के राम मन्दिर का ताला नहीं खुलवाया था, जब मुस्लिम समाज तलाक के मामले में प्रोग्रेसिव होने जा रहा था, तब शाहबनो के साथ अन्याय कर समाज के कट्टरपंथियों को बढ़ावा नहीं दिया था।

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भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी को भारत से भागने में किसकी सरकार ने मदद दी, भागलपुर दंगों के वक़्त किसकी सरकार ने हिन्दुओं के पक्ष में आंखें मूंद ली थीं। क्या यह सच नहीं कि देश में कम्प्यूटर का जमाना लाने वाले राजीव सामाजिक मसलों में निरे नतजुर्बेकार थे और अक्सर अपने शातिर सलाहकारों की गलत सलाहों को मान लेते थे जिनकी कोई सामाजिक दृष्टि नहीं थी। तभी तो नागर्जुन ने उन्हें गुब्बारा कह कर उनका मखौल उड़ाया था। और आज जिस विराट के पारिवारिक इस्तेमाल की बात हो रही है मुझे नहीं लगता कि राजीव ऐसा नहीं कर सकते, उन्होने किया या नहीं यह कह नहीं सकता। मगर ऐसा करना वे गलत मानते होंगे ऐसा बहुत विश्वास के साथ नहीं कह सकता।

मगर इसके बावजूद मैं इस चुनाव में उस राजीव गांधी को घसीटना गलत मानता हूँ, जिसकी हत्या आज से तकरीबन 28-29 साल पहले हो गयी हो। इस चुनाव में 30 साल पुराने भ्रष्टाचार और गलत फैसलों पर क्यों बहस हो। इस चुनाव में तो पिछ्ले पांच साल के कामकाज का आंकलन होना चाहिये। मगर न मोदी उसका जिक्र करते हैं, न विपक्ष कड़े सवाल कर पाता है। यहां न नोटबंदी की असफलता का जिक्र है, न जीएसटी के गलत प्रयोग का, न बेरोजगारी का सवाल है, न खेती के संकट की बात है । इनदिनों पूरा देश भीषण सूखे की तरफ बढ़ रहा है, मगर चुनाव में कहीं कोई जिक्र नहीं है।

मुजफ्फरपुर शेल्टर होम की 11 लड़कियों की हड्डियां मिलने की पुष्टि CBI ने सुप्रीम कोर्ट में की, मगर चुनाव में इसकी कहीं चर्चा नहीं है। व्यापम और सृजन जैसे घोटालों को तो सदाब्रत मान लिया गया है। हां, हम 30 साल, 40 साल, 100 साल पहले के मामलों का गहरायी से विश्लेषण करने में जुटे हैं। धूर्त सत्ता पक्ष ने जनता के मुद्दों की तरफ से हमारा ध्यान दूसरी तरफ कर दिया है। हम इतिहास के एकेडमिक सवालों पर बहस करते हुए चुनाव में अपनी राय बना रहे हैं और मौजूदा वक़्त के सवालों को गैरजरूरी मान कर उन्हें छोड़ दे रहे हैं।

मेरा विरोध सिर्फ इसी बात से है। अगर आपको हमें राजीव के भ्रष्टाचार के बारे में बताना था तो आप अपने शासन काल में इसकी छानबीन करवाकर मुकदमे करवाते। मगर आपने तो उस राबर्ट वाढ्रा का भी कुछ नहीं किया, जिसे कोस कोस कर आपने 2014 जीता था। और उस कन्हैया का भी कुछ नहीं कर पाये जिसके नाम पर आपने देशद्रोही की नई परिभाषा गठित की। आपका लक्ष्य तो इन्हें चुनाव में घसीटना भर था।

और हां, राजीव या इन्दिरा या नेहरू गलत हो सकते हैं। इनकी कई गलतियों पर मुझे भी पूरा भरोसा है। मगर इनमें कई अच्छाईयां भी हैं। जब गांधी के मुकाबले मैं नेहरू को देखता हूं तो मुझे नेहरू में कई खामियां, कई दोष नजर आते हैं। जब इन्दिरा के सामने जयप्रकाश खड़े हो गये तो इन्दिरा की बांग्लादेश युद्ध जीतने वाली लौह महिला की छवि भी बौनी पड़ गयी। जब राजीव के सामने बीपी सिंह और देवीलाल जैसे नेता खड़े हुए तो लोगों ने दूसरे विकल्प को चुना।

मगर जब आप नेहरू, इन्दिरा और राजीव के सामने खड़े होकर उन पर कीचड़ फेंकते हैं तो वह कीचड़ बार बार आपके चेहरे पर गिरता है। क्योंकि रिलेटिवली आपका कद इनके सामने काफी बौना है। आपके खाते में उपलब्धि के नाम पर लगभग कुछ नहीं है, सिवाय इस समाज को, देश को अशांत करने और हिन्दुओं में तालिबानी सोच भरने के। यही वजह है कि सामने लगभग नकारा विपक्ष के होते हुए भी यह चुनाव लगभग आपके हाथ से फिसलता नजर आ रहा है और आप इसे जीतने के लिये छटपटाते, इधर उधर हाथ पांव मारते, आँय बांय बकते घूम रहे हैं।

आपकी मजबूरी साफ दिख रही है कि इस चुनाव में आपके पास बताने के लिये कोई उपलब्धि नहीं है, सिवाय पकिस्तान और मुसलमान को कथित रूप से सबक सिखाने के दावों के। आपको एक कथित दुशमन भी चाहिये, जिसका भय दिखाकर आप न्यूट्र्ल वोटरों को अपनी तरफ समेट सकें, जो कट्टर हिन्दुत्व से दूर रहना चाहता है। इसलिये आप बार बार इतिहास में लौटते हैं और संघ के बौद्धिक कारखानों में गढ़े गये पुराने झूठों को चुनावी भाषणों में उछालते हैं। मगर सच मानिये, यह सब बैक फायर कर रहा है। अगर बचे रहना है तो अभी भी वक़्त है, अपनी बेशर्मी छोड़िये और थोड़ा विनम्र बनिये। अपने काम काज पर बात कीजिये, आपने जो वादा किया था, उसमें जो पूरा हुआ उसका जिक्र कीजिये। जो नहीं कर पाये उसके लिये वक़्त मांगिये। भारत में चुनाव इसी तरह लड़े जाते हैं। मतदाता सिर्फ आपका काम नहीं, आपका जेस्चर भी देखता है। वह विनम्र असफलता को तो कबूल कर लेता है, मगर बड़बोलापन और बद्तमीजी को कभी पसंद नहीं करता। मगर मैं जानता हूं, आप ये करेंगे नहीं। क्योंकि आपकी राजनीतिक परवरिश उस तरह से नहीं हुई है जिसमें सादगी और ईमानदारी झलकती हो।

यही बात उस वंशवादी नेहरू गांधी परिवार की विशेषता है। इसलिये वे तमाम गड़बड़ियों के बावजूद अक्सर चुनाव जीत जाते थे। यही वजह है कि उस परिवार का नया लौंडा आपकी नफरत भरी टिप्पणी के बावजूद आपको गले लगाने की बात करता है। यह भी एक राजनीति ही है, मगर थोड़ी खूबसूरत है और भारत की जनता इसे पसंद करती है।

लेखक : पुष्य मित्र, स्वतंत्र पत्रकार

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