9 वर्ष की उम्र में विवाह, 14 की उम्र में बनीं माँ, कुछ ऐसी है देश की पहली महिला डॉक्टर की कहानी

जिस दौर में महिलाओं की शिक्षा भी दूभर थी, ऐसे में विदेश जाकर डॉक्‍टरी की डिग्री हासिल करना अपने-आप में एक मिसाल है। उनका व्‍यक्तित्‍व महिलाओं के लिए हमेशा प्रेरणास्‍त्रोत रहेगा। जब उन्‍होंने यह निर्णय लिया था, उनकी समाज में काफी आलोचना हुई थी कि एक शादीशुदा हिंदू स्‍त्री विदेश जाकर डॉक्‍टरी की पढ़ाई करेगी। लेकिन वह एक दृढ़निश्‍चयी महिला थीं और उन्‍होंने आलोचनाओं की तनिक भी परवाह नहीं की। यही वजह है कि उन्‍हें पहली भारतीय महिला डॉक्‍टर होने का गौरव प्राप्‍त हुआ।

जी हाँ, यह कर्मठता दिखाई थी आनंदी गोपाल जोशी ने, जिन्हें भारत की पहली महिला डॉक्टर होने का गौरव हासिल है।

31 मार्च 1865 में पुणे के एक रुढ़िवादी हिंदू-ब्राह्मण मध्यमवर्गीय परिवार में आनंदीबाई का जन्म हुआ। वह एक ऐसा दौर था जहां खुद की ज़रूरत व इच्छा से पहले समाज क्या कहेगा इस बात की परवाह की जाती थी। आनंदीबाई के बचपन का नाम यमुना था। उनका लालन-पालन उस समय की संस्कृति के अनुसार से हुआ था, जिसमें लड़कियों को ज्यादा पढ़ाया नहीं जाता था और उन्हें कड़ी बंदिशों में रखा जाता था। 9 साल की छोटी-सी उम्र में उनका विवाह उनसे 20 साल बड़े गोपाल विनायक जोशी से कर दिया गया था। और शादी के बाद उनका नाम आनंदी गोपाल जोशी रख दिया गया।

आनंदीबाई तब मात्र 14 साल की थी, जब उन्होंने अपने बेटे को जन्म दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश उचित चिकित्सा के अभाव में 10 दिनों में उसका देहांत हो गया। इस घटना से उन्हें गहरा सदमा पहुंचा। वह भीतर-ही-भीतर टूट-सी गई। आनंदीबाई ने कुछ दिनों बाद अपने आपको संभाला और खुद एक डॉक्टर बनने का निश्चय लिया। वह चिकित्सा के अभाव में असमय होने वाली मौतों को रोकने का प्रयास करना चाहती थी।

अचानक लिए गए उनके इस फैसले से उनके परिजन और समाज के बीच विरोध की लहर उठ खड़ी हुई। मगर इस फैसले में उनके पति गोपालराव ने भी पूरा साथ दिया। उनके पति गोपाल विनायक एक प्रगतिशील विचारक थे और महिला-शिक्षा का समर्थन भी करते थे। वह खुद आनंदीबाई के अंग्रेजी, संस्कृत और मराठी भाषा के शिक्षक भी बने। कई बार गोपाल ने उन्हें पढ़ने के डाँट भी लगाई। उस समय भारत में ऐलोपैथिक डॉक्टरी की पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उन्हें पढ़ाई करने के लिए विदेश जाना पड़ा।

श्री जनार्दन जोशी अपने उपन्यास ‘आनंदी गोपाल में लिखा है,
“गोपाल को ज़िद थी कि अपनी पत्नी को ज्यादा से ज्यादा पढा़ऊँ। उन्होंने पुरातनपंथी ब्राह्मण-समाज का तिरस्कार झेला। पुरुषों के लिए भी निषिद्ध, सात समंदर पार अपनी पत्नी को भेज कर उसे पहली भारतीय महिला डाॅक्टर बनाने का इतिहास रचा।”

साल 1883 में आनंदीबाई ने अमेरिका (पेनसिल्वेनिया) की जमीं पर कदम रखा। उस दौर में वे किसी भी विदेशी जमीं पर कदम रखने वाली पहली भारतीय हिंदू महिला थी। उन्नीस साल की उम्र में 11 मार्च 1886 को वह MD की डिग्री लेकर भारत लौट आई। जब उन्होंने यह डिग्री प्राप्त की, तब महारानी विक्टोरिया ने उन्हें बधाई-पत्र लिखा और भारत में उनका स्वागत एक नायिका की तरह किया गया।

भारत वापस आने के कुछ ही दिनों बाद ही वह टीबी की शिकार हो गई| जिससे 26 फरवरी 1887 को मात्र 22 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। यह सच है कि आनंदीबाई ने जिस उद्देश्‍य से डॉक्‍टरी की डिग्री ली थी, उसमें वे पूरी तरह सफल नहीं हो पाईं, परंतु उन्‍होंने समाज में वह स्थान प्राप्त किया, जो आज भी एक मिसाल है। अपने जज़्बे और हिम्मत से उन्होंने उस दौर में लड़कियों की पीढ़ी को अपने सपने को पूरा करने के लिए लड़ना सिखाया।

आनंदीबाई के जीवन पर कैरोलिन वेलस ने 1888 में बायोग्राफी लिखी। जिसपर ‘आनंदी गोपाल’ नाम से सीरियल बना और उसका प्रसारण दूरदर्शन पर किया गया। उनके सम्मान में शुक्र ग्रह पर तीन बड़े बड़े गड्ढे हैं। इस ग्रह के तीनों गड्ढों का नाम भारत की प्रसिद्ध महिलाओं के नाम से है। उनमें से एक जोशी क्रेटर है। जिसका नाम आनंदी गोपाल जोशी के नाम पर है।

आनंदी गोपाल जोशी का अल्प जीवन काल आज भी एक प्रेरणा है। समाज की रुढ़िवादी विचारधारा का विरोध कर नयी परंपरा के सृजन के साथ ही साथ उनकी कहानी कर्मठता, दृढ़ता और कड़ी मेहनत का उत्कृष्ट उदाहरण है।

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