16 साल में पति को खोने के बाद भी नहीं मानी हार, पढ़-लिख कर बनीं अफसर

PATNA : ये कहानी है पटना यूनिवर्सिटी की एक ऐसी छात्रा की जिसने मुश्किलों से लड़ कर खुद अपनी तकदीर लिखी। 16 साल की उम्र में विधवा हो जाना। दुख की इस घड़ी में एक बच्ची को जन्म देना। कॉलेज की पढ़ाई की शुरआत क्या हुई कि कदम- कदम पर दुख रोड़ा अटकाने लगे। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। पूरे मन से पढ़ाई की। अफसर बनी। आज वह बिहार में नारी सशक्तीकरण की बहुत बड़ी पहचान है। इस चर्चित छात्रा का नाम है डॉ. शांति ओझा।

पटना यूनिवर्सिटी के पहले छात्र आंदोलन में एक दुखद घटना हो गयी थी। 12 अगस्त 1955 को पटना पुलिस ने प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर गोली चला दी थी जिसमें छात्र नेता दीनानाथ पांडेय की मौत हो गयी थी। दीनानाथ पांडेय की पत्नी शांति ओझा पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। उस समय उनकी उम्र केवल 16 साल थी। शादी के तीन महीने बाद ही उनकी दुनिया उजड़ गयी। जिस समय उनके पति की मौत हुई उस समय वे तीन महीने की गर्भवती थीं। मैट्रिक पास कर चुकी थीं और पटना के मगध महिला कॉलेज में दाखिला लेने ही वाली थीं। घर के लोगों ने हौसला बढ़ाया। वे पढ़ने के लिए पटना आयीं। कुछ दिन क्लास करने के बाद उनकी बेटी का जन्म हुआ।

बेटी के जन्म के बाद उनके सामने सबसे बड़ी समस्या ये आयी कि वे क्लास कैसे करें ? पढ़ाई छूटने का डर सताने लगा। तब उन्होंने इसके लिए वीसी से गुहार लगायी। बात कुलाधिपति यानी राज्यपाल के पास पहुंची। राज्यपाल दीनानाथ पांडेय की दुखद घटना से वाकिफ थे। उन्होंने उदारता के साथ इस सवाल पर विचार किया। राज्यपाल ने एक विशेष नियम बनाया कि शांति अपनी नवजात बच्ची के साथ क्लास कर सकती हैं।

इसके बाद शांति ने पढ़ाई में अपना सब कुछ झोंक दिया। वे बच्ची के साथ कॉलेज आतीं और पढ़ाई करतीं। ये बहुत आसान नहीं था। लेकिन उन्होंने दुख और परेशानियों को अपने ऊपर हावी होने नहीं दिया। इंटर, बीए और एमए तक की पढ़ाई पूरी कर ली। डिग्री हासिल करने के बाद वे बिहार लोकसेवा आयोग की परीक्षा में बैठीं और सफल रहीं। उनका चयन बिहार शिक्षा सेवा में हुआ।

कई पदों पर रहने के बाद वे 1975 में पटना के बांकीपुर गर्ल्स हाई स्कूल की प्रिंसिपल बनीं। यहां आने के बाद उन्होंने लड़किय़ों और महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश शुरू की। इस बीच पटना के नामी डॉक्टर टीपी ओझा ने सामाजिक रुढ़ियों को दरकिनार कर शांति के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। तब तक शांति शिक्षा विभाग की एक अधिकारी के रूप में नाम कमा चुकीं थीं। पुनर्विवाह को लेकर उनके मन में दुविधा थी। एक विधवा के विवाह को लेकर समाज का नजरिया बहुत संकुचित था। लेकिन घर वालों के समझाने के बाद उन्होंने डॉ. टीपी ओझा से शादी कर ली।

महिलाओं के अधिकार के लिए वे हमेशा सक्रिय रहीं। 1995 में महिला सम्मेलन में बाग लेने के लिए वे चीन गयीं। महिलाओं के मुद्दे पर न्यूयॉर्क और मनीला में आयोजित सम्मेलनों में भी वे भागीगारी कर चुकी हैं। वे बिहार का प्रतिनिधि बन कर बांग्लादेश में शांति दूत की भूमिका निभा चुकी हैं।

डॉ. शांति ओझा ने शिक्षा विभाग के वरिष्ठ अधिकारी के पद से सेवानिवृत्ति ली। इसके बाद वे पूरे मन से महिलाओं के सशक्तीकरण में जुट गयीं। 1990 में उन्होंने ‘जागो बहन’ नाम से एक प्रत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। महिलाओं के कौशल विकास के लिए मुफ्त व्यवस्था की। कम्प्यूटर , सिलाई, कढ़ाई और दूसरे हुनर सीख कर कई लड़कियां आत्मनिर्भर बनीं। डॉ. शांति ओझा ने अपनी काबिलियत और हिम्मत के बल पर न केवल अपने अंधेरे जीवन को रौशन किया बल्कि दूसरों के जीवन में भी उजाला फैलाया।

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