तेजस्वी ने किया तिरंगा का अपमान?, उपेंद्र कुशवाहा का आरोप, फिर से जंगलराज या कुशासन, कभी नहीं

तेजस्वी यादव पर तिरंगा के अपमान का आरोप लगाया जा रहा है, रालोसपा नेता उपेंद्र कुशवाहा ने फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि जिन्हें राष्ट्रीय प्रतीक तिरंगा के सम्मान तक का ज्ञान नहीं है, सत्ता और कुर्सी की सनक में शिक्षा के महत्व की समझ नहीं है, बिहार के लोग उनसे राज्य में विकास और खुशहाली की उम्मीद कैसे करें ? फिर से जंगलराज या कुशासन, कभी नहीं ! शिक्षा-रोजगार वाली #GDSF सरकार अबकीबार,

बिहार चुनाव: मोदी-नीतीश या तेजस्वी-राहुल? जानें सियासी समीकरण में कौन है भारी
बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Election) के पहले चरण का मतदान 28 अक्टूबर को है. सियासी दल चुनाव प्रचार में पूरी ताकत झोंक रहे हैं और आरोप- प्रत्यारोप के बीच जीत के दावे कर रहे हैं. हालांकि राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बिहार में छह राजनीतिक मोर्चों की मौजूदगी के बीच मुकाबला तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) के नेतृत्व वाले महागठबंधन (Grand alliance) और सीएम नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए (NDA) के बीच ही है. तेजस्वी दावा कर रहे हैं कि बिहार की जनता बदलाव चाहती है और 10 नवंबर को उनकी ही सरकार बनेगी. वहीं, सीएम नीतीश कुमार को बीते 15 वर्षों के अपने कार्यकाल पर भरोसा है. वे भी खुद की वापसी को लेकर इत्मीनान हैं. दूसरी ओर राजनीतिक जानकार इस बार के चुनाव को कुछ अलग मान रहे हैं और इसकी कई वजहें भी गिना रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय कहते हैं कि इस बार सीएम नीतीश के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी के हालात हैं और यह स्वाभाविक भी है. जमीन पर तमाम अधूरे कार्यों और किए गए वादों को पूरा नहीं किए जाने का हवाला देकर लोग उनके मंत्री-विधायकों को कोस रहे हैं. वहीं, तेजस्वी में लोगों को बदलाव की सूरत तो दिखती है, मगर लालू और राबड़ी देवी के कार्यकाल की याद दिलाकर विपक्षी उन्हें और उनके रणनीतिकारों को बेचैन कर देते हैं. हालांकि राष्ट्रीय जनता दल के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह ने इस बार ऐसे सामाजिक समीकरण बनाने की कोशिश की है, जो सीएम नीतीश के लिए मुश्किल का सबब बन सकती है.

रवि उपाध्याय कहते हैं कि महागठबंधन ने सामाजिक समीकरण का ऐसा हिसाब-किताब बिठाया है, जो सफल हो जाए तो बिहार की सियासी कहानी बदल जाएगी. दरअसल सवर्णों का विरोध करने के लिए जानी जाने वाली पार्टी आरजेडी ने अपनी छवि बदलने की कोशिश की है और पहले की तुलना में काफी अधिक हिस्सेदारी दी है. इसमें पिछड़े वर्गों और मुस्लिम समुदाय को भी साधने की कवायद साफ-साफ दिखती है. वहीं कांग्रेस ने भी अपने सामाजिक आधार को बरकार रखा है और पूरी तैयारी के साथ मैदान में है. हालांकि जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी का साथ छूटने से इस ताने-बाने को धक्का भी लगा है.

वहीं, वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार अशोक कुमार शर्मा कहते हैं कि महागठबंधन के दावों में दम जरूर है, लेकिन एनडीए के पास जगदानंद सिंह, तेजस्वी यादव और कांग्रेस नेताओं की तमाम रणनीति का जवाब एक ही है, और वह है पीएम मोदी और सीएम नीतीश का एक साथ आना. इस जोड़ी में वह ताकत है जो महागठबंधन का सोशल इंजीनियरिंग ध्वस्त करने की क्षमता रखता है. यही बात 2019 के लोकसभा चुनाव में भी दिखी थी, जब तेजस्वी कहते थे कि 23 मई को चुनाव परिणाम आने के बाद बिहार में भूचाल आएगा और दोनों पार्टियां (जेडीयू-बीजेपी) ‘डायनासोर’ की तरह गायब हो जाएंगी. पर नतीजा यह रहा कि राजद 40 लोकसभा सीटों में एक भी नहीं जीत पाई.

अशोक कुमार शर्मा कहते हैं कि तब तेजस्वी यादव के साथ जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी जैसे सामाजिक समीकरण के प्रतीकात्मक चेहरे भी थे और परसेप्शन भी बदलाव का ही बना था. लेकिन, नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार ने साथ आकर बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत दर्ज कर ली. कांग्रेस ने मुस्लिम बहुल किशनगंज सीट को जीतकर महागठबंधन का खाता तो खोल दिया, लेकिन इस सीट पर भी महागठबंधन की साख नहीं बच सकी. क्योंकि जानकार कहते हैं कि पहली बार कांग्रेस यहां से महज 35 हजार मतों से जीत दर्ज कर सकी थी.

वहीं, रवि उपाध्याय कहते हैं कि महागठबंधन के लिए एक मुश्किल का सबब ये भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने आरक्षण, अगड़ा-पिछड़ा का मुद्दा, जिसकी जितनी भागीदारी-उसकी उतनी भागीदारी के साथ ही बिहार में 69 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा उठाकर 2015 के विधानसभा चुनाव वाली लालू की रणनीति दोहराने की कवायद की थी, पर वह फेल हो गए. ऐसा माना जा रहा था कि फेल होने के बाद भी राजद अपना कोर मुद्दा नहीं छोड़ेगा, लेकिन यह मुद्दा इस बार के चुनाव में बिल्कुल ही नहीं दिख रहा है. जाहिर तौर पर यह राजद की रणनीतिक बदलाव में जहां बदलते समय के अनुसार खुद को ढालने की चाहत दिख रही है, वहीं मतदाताओं के बीच इसको लेकर कन्फ्यूजन भी पैदा हो रहा है.

रवि उपाध्याय कहते हैं कि किसी भी राजनीतिक दल के लिए अपने कोर मुद्दे को छोड़कर आगे बढ़ना बहुत बड़ा रिस्क है. वह भी तब जब आपके मुकाबला ऐसे नेताओं से हो जिनकी राजनीति का आधार और यूएसपी ही वही हो जैसा कि महागठबंधन अब खुद को दिखाना चाहता है. इसके उलट पीएम मोदी और सीएम नीतीश कुमार पहले से ही सर्वसमाज को साथ लेकर चलने वाली रणनीति पर मैदान में उतरते रहे हैं. इसके अलावा कुशवाहा का महागठबंधन से अलग होना और मांझी को नीतीश द्वारा सम्मान दिए जाने एवं मुकेश सहनी के यह कहने से कि पीएम मोदी ने उन्हें सम्मान दिया, महागठबंधन की रणनीतियों पर भारी पड़ सकता है.

अशोक कुमार शर्मा कहते हैं कि बिहार की राजनीति में एक और अहम बात ये हुई है कि चिराग पासवान की लोजपा एनडीए से अलग तो हो गई है. लेकिन जिस तरह से वह पीएम मोदी की तारीफ करते हैं और सीएम नीतीश की आलोचना करने में लगे हैं, इससे और कुछ नहीं, कन्फ्यूजन ही पैदा हो रहा है. आखिर में मतदाओं के सामने दो ही विकल्प रहेंगे. महागठबंधन के सामने पीएम मोदी और सीएम नीतीश की जोड़ी रहेगी. शर्मा कहते हैं कि एंटी इंकम्बेंसी के बावजूद मोदी-नीतीश की जोड़ी की राजनीतिक काट बिहार की राजनीति में फिलहाल किसी अन्य विकल्प में नहीं दिख रही है. हाल में आने वाले कई सर्वे भी इस बात की तस्दीक भी करते हैं.

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