छठ पर्व को किया जा रहा बदनाम, मेट्रो शहर में रहने वाले छठ मैया की महिमा क्या जानेंगे

PATNA : छठ पूजा सिर्फ बिहार में मनाने जाने वाला पर्व मात्र नहीं है। यह एक धर्म है जो लोगों को जोड़ती है। प्रवास में रह लोगों को घर आने के लिए विवश करती है। अमीर-गरीब के बीच भेद मिटाती है। स्वच्छ रहने का संदेश देती है। महिला और पुरुष समाज के बीच में पसरी भिन्नता को समान करती है। छठ एक मात्र ऐसा पर्व है जो पतरा का नहीं अच्ररा का पर्व है। इसमें ना तो पंडित की आवश्यकता होती है और नाही वेद पाठ किया जाता है। बावजूद इसके इस पर्व को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। मेट्रो शहर में रहने वाले लोग इसे अंधिवश्वास और ढोंग बता रहे हैं। लाइव बिहार का यह आलेख उन सबके गाल पर तमाचा है।

कुछ लोगों की आदत होती है कि अच्छी चीजों में भी मीन मेख निकालो। बोलचाल की भाषा में ऐसा करने वालों को बातफरोश कहते हैं। सोशल मीडिया पर बतकूच्चन करने वालों की कमी नहीं है। लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी ने छठ पूजा की कमियां निकालने के लिए हद पार की है।एक वेब पोर्टल के पोस्ट में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है वो आपत्तिजनक है। कई जगह ऐसे शब्द भी इस्तेमाल किये गये हैं जो अभद्र हैं।

पहले यह जान लेना जरूरी है कि इस पोस्ट में लिखा क्या गया है। इस पोस्ट के कुछ वक्याशों पर गौर कीजिए : – छठ के घाट पर…. वहां मौजूद सभी औरतें नहा के कपड़े बदलने लगीं। बड़े से तालाब के घाट पर गोवा के बीच जैसा नजारा था। – सिर पर फलों से भरा बड़ा सा टोकरा रख के घर से घाट तक ले जाना और बिना खाए वापस ले आना. पूरे रास्ते रुआंसा रहना ।- मुझे वैसे तो कोई भी वो त्योहार पसंद नहीं जिसमें काम करना पड़े । – ये वही वर्ग है जो सड़कों पर लोटते हुए छठ के घाट जाता है क्योंकि इसे लगता है कि छठी मइया इसके बीमार बाप को ठीक कर देंगी। – 2008 के आस-पास (मुम्बई में) छठ पर्व खत्म होने की दशा में आ गया था। पर राज ठाकरे ने बिहारियों के खिलाफ आंदोलन चलाकर इसे जिंदा कर दिया। – मैंने बहुत जगह काम किया है. इज्ज़त काफी मिली है. पर सच यही है कि बिहारी होना आपको कमतर कर देता है। – इसमें बिहारी मिडिल क्लास की बात अलग है. नॉस्टैल्जिया से प्रेरित ये क्लास अपने गांव में रहने वाली सास को खुश करने के लिए ये त्योहार मनाता है। – बिहार में शहर नहीं हैं…. मजे करने की जगहें नहीं हैं….- ठेकुआ दो तरह का बनता है। एक खुद खाने के लिए। दूसरा बांटने के लिए। बांटने मतलब तथाकथित पिछड़ी जातियों के लिए जिनके घर छठ करने का जुगाड़ नहीं होता। – छठ करने वाली औरतों के भर मुंह सिंदूर पोतने को लेकर मैं कुछ नहीं कह सकता ।

इस वेब पोर्टल के विद्वान लेखक ने अपने विशेष आलेख में जिन उपरोक्त वाक्यांशों का प्रयोग किया है वह जानबूझ कर करोड़ों लोगों की भावना को ठेस पहुंचाने के लिए है। अपने आप को बिहारी कहने वाले इस सज्जन ने छठ और बिहार की गरिमा को धूमिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लगता है इस लेखक के दिमाग में गोबर भर गया है। क्या छठ घाट का नजारा गोवा के बीच जैसा होता है?

गोवा के बीच पर तो देसी –विदेशी औरतें बिकनी में सनबाथ ले रही होती हैं, या नहाती है। क्या छठ घाट पर महिलाएं बिकनी में होती हैं ? अर्घ्य देने के बाद अगर कोई व्रती महिला घाट पर कपड़े बदल रही होती है तो क्या इसकी तुलना गोवा के बीच से की जा सकती है ? अगर बच्चे को दूध पीला रही महिला में कोई सेक्स खोजने लगे तो उसे मानसिक रूप से माना जाना चाहिए। छठ में सिर पर टोकरा नहीं बल्कि दऊरा ले जाया जाता है। छठ पूजा एक संस्कृति भी है। उसकी अपनी भाषा है। लगता है लिखने वाले सज्ज्न शहरी तड़क भड़क वाले हैं। लोकसंस्कृति से उनका कोई मतलब नहीं। नहीं तो वे दऊरा को टोकरा न लिखते। दोनों के भाव में बहुत अंतर है।

छठ घाट पर षाष्टांग दंडवत कर के जाना एक कठिन साध्य है। बहुत बड़ी मनौती के लिए विरले लोग ही इसका संकल्प लेते हैं। अब ऐसी महान आस्था के लिए आलेख में लिखा गया है कि लोग जमीन पर लोटते हुए घाट पर जाते हैं। लगता है लेखक किसी दूसरे ग्रह के आदमी हैं। उन्हें छठ के बारे में कुछ मालूम नहीं लेकिन किसी के कहने पर छठ और बिहार के खिलाफ कुछ लिख मारा है। मुम्बई में छठ पूजा 1993 से हो रही है। तब राज ठाकरे का अता-पता नहीं थी। उस समय उनके आका बाल ठाकरे जिंदा थे और जुहू चौपाटी पर छठ पूजा होती थी। अगर ताथाकथित क्रिएटिव लेखक के घर में छठ पूजा होती तो वे कभी नहीं लिखते कि एक ऐसा भी ठेकुआ बनता है जो सिर्फ पिछड़ी जातियों को बांटने के लिए होता है। लगता है लेखक महोदय सवर्ण हैं और सामंती मानसिकता के साथ उन्होंने ये सब लिखा है।

छठ पूजा तो पिछड़े, दलित सभी करते हैं, फिर वे क्यों दो तरह का ठेकुआ बनाते हैं ? दूसरे तरह का ठेकुआ वे किसको बांटेंगे ? ये सच है कि छठ पूजा में दो तरह का ठेकुआ बनता है। लेकिन इसकी वजह दूसरी है। पहले तरह का ठेकुआ शुद्ध घी में बनता है जो भगवान सूर्य को अर्घ्य देने के लिए सूप पर रखा जाता है। सूप पर रिफांइड या डालडा का ठेकुआ नहीं चढ़ता। दूसरे तरह का ठेकुआ ऱिफाइंड या डालडा में बनता है जो प्रसाद वितरण के लिए होता है। सवर्ण हों या दलित सभी ऐसा ही करते हैं। इसमें जाति की कोई बात नहीं है। बल्कि कहें तो छठ पूजा के समय असली समाजवाद दिखायी पड़ता है। दलित हों या सवर्ण सभी एक घाट पर पूजा करते हैं। और तो और छठ व्रती का पैर छू कर आशीर्वाद लेने में कोई ये नहीं देखता कि वह किसी जाति का है। छठ पूजा में नाक तक सिंदूर करने का मतलब है सुहाग की लंबी उम्र । इसे सिंदूर पोतना नहीं कहते हैं। अगर कोई इस तरह की भाषा लिखे तो आप उसे क्या कहेंगे ?

नोट : यह पोस्ट पिछले साल की है जिसे फिर से एक बार प्रकाशित किया जा रहा है, विश्वास कीजिए इस बार भी रायता फैलाया जाएगा

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