दिल्ली में कांग्रेस को बधाई….पहले भी जीरो था इस बार भी जीरो ही आया है

PATNA ; पता नहीं कांग्रेस की चुनावी नीतियां, रणनीतियां कहां बनती हैं? बनती हैं या नहीं भी बनती हैं। लेकिन दिल्ली चुनाव को कांग्रेस ने जिस तरह से लड़ा वह आज भले ही मजाक, मीम और जोक का विषय हो लेकिन कांग्रेस इस चुनाव में इससे बेहतर भूमिका नहीं निभा सकती थी।

दिल्ली कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष कौन हैं ये जानने के लिए आपको गूगल करना होगा। कांग्रेस ने प्रचार कमेटी का एक हेड भी बनाया था। वो कौन हैं ये जानने के लिए भी गूगल ही करना होगा। कांग्रेस की प्रचार कमेटी के हेड की बीवी को उनके विधानसभा में दो हजार वोट भी नहीं मिलते हैं। मैंने किसी और जगह पर उन्हें वोट मांगते भी नहीं देखा।

जिस समय दिल्ली का चुनाव पीक पर था, राहुल जयपुर और वायनाड में रैलियां कर रहे थे। संसद में वायनॉड में मेडिकल कॉलेज क्यों नहीं है इस प्रश्न में दिलचस्‍पी दिखा रहे थे। कुछ महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में ‘दिल्ली की बेटी’ बनी प्रियंका गांधी ने एक भी सभा वहां नहीं की। वह चाहती तो दिन में दस रैलियां कर सकती थीं। देश के गृहमंत्री से ज्यादा उनके पास काम नहीं होता। जब वह गली-गली जाकर पंपलेट बांट सकते हैं तो प्रियंका भी ऐसा कर सकती थीं। कांग्रेस का कोई मुख्यमंत्री भी दिल्ली के चुनावों में नहीं आया।आखिरी में राहुल और प्रियंका ने मिलकर कुछ उन विधानसभाओं में नुक्कड़ सभाएं कीं जहां प्रत्याशी की प्रतिष्ठा दांव पर थी या उसके जीतने के कुछ मौके दिख रहे थे।

इसके अलावा कांग्रेस इस चुनाव में कांग्रेस कहीं नहीं रही। ना सड़क पर, ना होर्डिंग बैनर में, ना पोस्टरों में, ना अखबार के पन्नों में और ना ही ट्वीटर-फेसबुक पर। कांग्रेस के कुछ‌ विज्ञापन यूट्यूब पर दिखते थे ‌जिसमें ‘शीला दीक्षित वाली दिल्ली’ की बात होती थी। कांग्रेस मर चुकी शीला को तो याद करती है लेकिन शीला के बेटे संदीप दीक्षित को वह अपने 40 प्रचारकों की लिस्ट में भी शामिल नहीं करती।

ये बीजेपी भी जानती है, आम आदमी पार्टी भी और आप भी कि यदि कांग्रेस इस चुनाव को गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्‍थान या छत्तीसगढ ही नहीं यहां तक कि यूपी के अंदाज में भी लड़ती तो बीजेपी की जीत निश्‍चित थी। बीजेपी की तरह कांग्रेस अपने कोर वोटर को कुछ हद तक वैसे ही अपने पाले में ला सकती थी जैसा कुछ महीने पहले लोकसभा चुनाव में उसने किया था। दिल्ली की सात की सात सीटों में आम आदमी पार्टी नंबर तीन पर थी।

कांग्रेस ने ये राजनीतिक उपकार आम आदमी पार्टी से ज्यादा खुद पर ही किया है। खुद पर यूं कि बीजेपी के धार्मिक नैरिटेव से निपटने के लिए उनके पास ना तो इस समय हथियार हैं, ना ही सेनापति और ना ही ‘सेक्युलर’ पार्टी होने की वजह से जय बजरंग बली जैसा नारा लगाने की हिम्मत। आम आदमी पार्टी के नेता सौरभ भारद्वाज ने आज एक टीवी चैनल पर ‌एक किस्‍सा शेयर किया। उन्होंने बताया कि मेरी विधानसभा के पोलिंग बूथ पर बीजेपी के कुछ नवयुवक रामनामी ओढ़े वोट डालने के लिए जाने वालों से पूछते कि तुम हिंदू हो? जवाब हां में मिलने पर वो सोच समझकर वोट देने और ऐसा ना करने पर दिल्ली के पाकिस्तान बन जाने का डर दिखाते। वह जोर शोर से जय श्रीराम के नारे भी लगाते। आम आदमी पार्टी ने जब इस बारे में पुलिस से शिकायत की तो पुलिस का जवाब था कि हम जयश्री राम का नारा लगाने से कैसे रोक सकते हैं। वो वोट नहीं मांग रहे हैं, भगवान का नाम ले रहे हैं। सौरभ कहते हैं कि हमने आधे घंटे में तय किया कि हम उनसे ज्यादा जोर से जय बजरंग बली का नारा लगाएंगे। ये हमने पूरी दिल्ली में किया।

उनकी बात में सच्चाई भी दिखती है। चुनाव जीतने के बाद कनाट प्‍लेस वाले ‘फैंसी बजरंग बली’ के मंदिर में अरविंद केजरीवाल यूंही नहीं जाते। उसके पीछे पार्टी की एक प्लानिंग है जिसका उन्होंने चुनाव के समय भी प्रयोग किया था। राम और हनुमान में किसी को दिलचस्‍पी नहीं है। लेकिन जब राजनीति में इनके प्रयोग से ही वोटर का मन बहलता हो तो ऐसा करने में रत्ती भर झिझक नहीं होनी चा‌हिए। अब वो दिन गए जब पूजा आपका निजी मामला होता था। अब आस्था सड़क पर दिखाने की वस्तु है। कपड़ों में पहनने की वस्तु है।

2014 से पहले हमें ये पता था कि धर्म और भगवान हमारी रक्षा करते हैं। 14 के बाद पता चला कि, नहीं ऐसा नहीं है। हमें उनकी रक्षा करनी है। धर्म की रक्षा करने के कुछ टेम्पलेट भी हमें सजेस्ट किए गए। धर्म की रक्षा करने की राजनीतिक झिझक कांग्रेस को खाए जा रही है। वो बीजेपी के धार्मिक नैरेटिव को तोड़ने में हर बार हारी है।

आम आदमी पार्टी, बीजेपी के इस धार्मिक नैरेटिव को तोड़ने में सफल रही है, कांग्रेस उसी में उलझ जाती है। कांग्रेस इस जयश्री राम वाले मसले को ऐसे हैंडल करती कि शाम को ही अंजना बहन और सुधीर भाई साहब को अपने डिबेट का शीर्षक ‘कांग्रेस को राम से दिक्कत’, बनाना पड़ता। उनकी पत्रकारिता उन्हें ऐसा ना करने के लिए धिक्‍कारती। इन दिनों की पत्रकारिता भी अपने धर्म को लेकर बहुत जवाबदेह है। उसे आदमी से ज्यादा आदमी के धर्म की चिंता है।

कांग्रेस ने इन चुनावों में मौन रहकर उन पार्टियों को मौके दिए हैं जो धार्मिक उन्माद से निपटने में तो सक्षम नहीं हैं लेकिन वह काम करके काम के दम पर वोट मांग सकते हैं। काम के दम पर वोट मांगना एक सुकून भरी राजनीति की शुरूआत हो सकती है। काम किया गया है या नहीं। ये अलग विषय हो सकता है लेकिन काम के आधार पर वोट मांगना जनता के लिए हमेशा नफे का सौदा होगा। इसमें किसी का नुकसान नहीं होगा। किसी के लिए जहर नहीं घोल जाएगा.

हम हिंदू मुसलमान करते-करते इतनी दूर तक चले आए हैं कि ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को’ हमारे कानों को खटकता नहीं है। कोई नौजवान जयश्रीराम का नारा लगाते हुए गोली चला देता है और यह दृश्य भी हमें बहुत विचलित नहीं करता। उस सिरफिरे, घृणा से भरे हुए नवयुवक का पक्ष लेने के लिए इसी समाज से कुछ लोग खड़े हो जाते हैं। उनके पास उस कौम से अपनी तुलना करने के ढेरों उदाहरण होते हैं जिस कौम ने धर्म की वजह से नस्लें और देश तबाह कर डाले हैं। हम यहां तक भी बढ़ आएं हैं जहां बिरयानी एक देशद्रोही डिश बन चुकी है। उससे मुकाबले के लिए जल्द ही देशप्रेमी डिश भी आ सकती है।

कश्मीरी पंडितों के पलायन के समय बेनजीर भुट्टो ‘मुसलमानों की ताकत’ को ललकार रही होती हैं। वह कश्मीरी मुसलमानों का जोश बढ़ा रही होती हैं। उसी जोश में आए मुसलमान एक दिन उनकी भी गाड़ी में बम लगाकर अपने ताकतवर, निरंकुश और जोश में होने का प्रमाण पत्र उन्हें दे देते हैं। अकेली बेनजीर नहीं है। धर्म की आग में कौम को झोंकने वाले लोगों से इतिहास पटा पड़ा है। फिर उनका हश्र भी इतिहास उतनी ही दिल्लगी और दिलचस्पी से लिखता रहा है। दिल्‍ली के इस चुनाव में इतना हिंदू मुसलमान हुआ है कि यदि बीजेपी इसे जीत जाती तो उसके लिए आगे के चुनाव बेहद आसान होते।

हर पार्टी चुनाव जीतना चाहती है। उसके अपने नुस्‍खे होते हैं। निश्चित ही कांग्रेस का होगा, बंगाल या त्रिपुरा में लेफ्ट का रहा होगा या सपा, बसपा, तृणमूल, डीएमके जैसी क्षेत्रीय पार्टियों का भी होगा। लेकिन बीजेपी का चुनाव जीतने का जो नुस्‍खा है वह पूरी की पूरी कौम को तबाह करने की हैसियत रखता है। उस कौम की प्राथमिकता को हमेशा के लिए बदल देने का हुनर है उसके पास।

मुझे 2014 के बाद से कोई चुनाव याद ही नहीं आ रहा है जिसमें बीजेपी ने पाकिस्तान और मुसलमान ना किया हो। राज्यों के चुनाव में वह किसी बड़ी योजना के साथ गई हो या उसकी अपनी सरकारों ने काम के बदले वोट मांगा हो तो बता दें। मुझे याद नहीं आता। उसका स्ट्राइक रेट बताता है कि इन मुद्दों से वह नफे में रही है।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की ये भारी जीत बताती है कि ये नुस्खा मजबूत है, लेकिन इससे लड़ा जा सकता है और इसे पराजित भी किया जा सकता है। जो चेहरा इससे लड़ सके उसे लड़ने के लिए मैदान भी छोड़ा जा सकता है। जो काम इस चुनाव में कांग्रेस ने किया है। वह काम उसके चुनाव लड़ने से ज्यादा बेहतर काम है।

आज से और अभी से आपके फोन में पश्चिम बंगाल में हिंदू कितना परेशान है, उसकी कितनी हत्याएं हो रही हैं जैसे वाट्सअप संदेश आने शुरू हो जाएंगे। तो उस खेल को समझना उतना भी कठिन नहीं है जितना कि हमें लगता है। इसकी भी अपनी एक क्रोनोलॉजी है। ममता बनर्जी का अभी तक का एप्रोच बताता है कि वह ‘धर्म के इस खेल को’ डील नहीं कर पा रही हैं। उन्हें भी कुछ वैसा करना चाहिए जैसा कांग्रेस ने किया है या जैसा आदमी पार्टी ने….

-R. Devendra Shandilya

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