नीतीश-कुशवाहा के बेवक्त ‘मिलन’ से कन्फ्यूज न हों, ये है असल रणनीति

नीतीश-कुशवाहा के बेवक्त ‘मिलन’ से कन्फ्यूज न हों, ये है असल रणनीति: जेडीयू में रालोसपा के विलय की सियासी परिघटना को रणनीतिक मान रहे बिहार की राजनीति के जानकार. इसे नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा की जातीय जुगलबंदी या परंपरागत लव-कुश वोट बैंक पर फिर से पकड़ बनाने की मंशा के रूप में भी देखा जा रहा है.

बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम में उलटफेर हुआ है. उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का सीएम नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड में विलय कर लिया है. यह दूसरी बार है जब कुशवाहा ने नीतीश के पाले में लौटे हैं. इससे पहले 2009 में उन्होंने अपनी राष्ट्रीय समता पार्टी का जेडीयू में विलय कराया था. इस सियासी घटनाक्रम के साथ एक बड़ी बात कुशवाहा का वो बयान है जिसमें उन्होंने कहा,

‘मैंने अपने राजनीतिक जीवन में ढेरों उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन अब हर तरह का उतार-चढ़ाव नीतीशजी के नेतृत्व में ही देखना है. यह तय रहा. ऐसा मैंने अपने अनुभव से जाना है कि सारा ज्ञान किताबों को पढ़कर नहीं आ सकता. मैं बिना किसी शर्त नीतीशजी की अगुआई में सेवा करने कि लिए वापस आया हूं.’

इसके साथ ही बड़ी बात यह भी है कि कुशवाहा की पार्टी के जेडीयू में विलय होने के साथ ही नीतीश कुमार ने उपेंद्र कुशवाहा को जेडीयू के संसदीय बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया. जाहिर है ये दोनों ही बातें बिहार की सियासत की ‘घुरपेंच’ (बोलचाल की भाषा में ऐसी उलझी हुई रणनीति जिसे समझ पाना बिल्कुल ही आसान नहीं है.) की ओर इशारा करती हैं.

दरअसल बिहार की सियासत का ये वो डेवलपमेंट है जिसे राजनीतिक जानकार भी पूरी तरह समझा पाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं कि आखिर नीतीश-कुशवाहा की बेवक्त सियासी दोस्ती के मायने क्या हैं? बेवक्त इसलिए कि अब विधानसभा चुनाव 2025 में होंगे, वहीं लोकसभा चुनाव वर्ष 2024 में है.

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