बीजेपी, राहुल या सोनिया गांधी से तो जीत सकती है लेकिन महात्मा गांधी से लड़ना उसे भारी पड़ेगा

बीजेपी, राहुल या सोनिया गांधी से तो जीत सकती है लेकिन महात्मा गांधी से लड़ना उसे भारी पड़ेगा। गांधी से तो गोरे अंग्रेज तक लड़ नहीं पाए, बीजेपी तो “हिंदूवादी” पार्टी है! गांधी भारत की आत्मा हैं। इस देश में हजारों सालों में जो कुछ भी बेहतरीन हुआ है, गांधी उनमें से बहुत सी बातों को प्रतिध्वनित करते हैं।


बीजेपी स्लॉग ऑवर में लड़खड़ा रही है। वह चुनाव भले ही जीत जाए या जीतने के कगार पर पहुंच जाए लेकिन साध्वी प्रज्ञा उसके लिए समस्या बनती रहेंगी। मैं इस नतीजे पर नहीं पहुंचा हूं कि वे वाकई आंतकवादी हैं, लेकिन उनके बयानों से पार्टी कई बार बैकफुट पर गई है-इसमें संदेह नहीं है। उनमें राजनीतिक कौशल भी नहीं है और वे आगे भी पार्टी को शर्मिंदा नहीं करेंगी इसका कोई कारण नहीं दिखता।

गांधी से लड़ना आसान नहीं है। मरे हुए गांधी से लड़ना तो और भी आसान नहीं है। सन् सैंतालिस में बंटवारे की वजह से देश में जिस तरह का ध्रुवीकरण था, जनसंघ या किसी हिंदूवादी दल के लिए एकाध दशक में देश की सत्ता में आना आसान था। लेकिन गांधी की हत्या और हत्या के आरोप ने संघ और जनसंघ को देश की जनता की निगाह में संदेहास्पाद बना दिया। जनसंघ/बीजेपी को फिर से पनपने में चालीस-पचास साल लग गए। मरे हुए गांधी ने उसे पचास साल पीछे धकेल दिया था। बीजेपी अगर फिर से वही ग़लती करेगी तो उसे फिर से इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

गांधी खुद हिंदूवादी थे, बल्कि उनका हिंदू धर्म अपने धर्म को अंदर से मजबूत और बुराइयों को दूर कर देश की आजादी और विश्व कल्याण में योगदान देने वाला था। वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें ‘हिंदू राइट’ कहा तो जिन्ना उनको अपना ‘हिंदू प्रतिस्पर्धी’ मानते थे। इतिहासकार पेट्रिक फ्रेंच लिखते हैं कि गांधी के भारत में आगमन, विशाल जनसभाओं और प्रतिरोध के उनके अभिनव तरीकों और उसे मिले जनसमर्थन ने मुसलमानों को चौकन्ना कर दिया और मुस्लिम लीग को मजबूत करने में बड़ी भूमिका अदा की। जाहिर है, आमतौर पर मुसलमान भी गांधी को हिंदू नेता मानते थे जिसका प्रमाण उन चुनावों में मिला जिसमें मुस्लिम लीग के उम्मीदवार मुसलमानों के लिए आरक्षित लगभग सारी सीटों पर चुनाव जीत गए और कांग्रेस खेत रही।

एक ऐसे “हिंदू गांधी” से “हिंदू बीजेपी” लड़ना चाहती है। एक सॉफ्ट हिंदुत्व से हार्ड हिंदुत्व लड़ना चाहता है जिसने आज से सात दशक पहले भी उसे राजनीतिक और नैतिक लड़ाई में मात दे दी थी।
सवाल यह है कि बीजेपी इस द्वंद से कब बाहर निकलेगी?

साभार : सुशांत झा, वरिष्ठ पत्रकार

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