जुरायल रहू, आज है बिहार का नया साला, धूमाधाम से मानाया जा रहा है लोकपर्व जूड़शीतल

मिथिला में प्रचलित पर्वों में जूड़शीतल का अपना खास महत्व रहा है। सतुआनी के दूसरे दिन मनाए जाने वाले इस पर्व के माध्यम से एक साथ कई संदेश दिए जाते हैं। प्रकृति से प्रेम, बड़ों से आशीर्वाद लेने की सशक्त परंपरा व स्वस्थ्य शरीर के लिए सामयिक खानपान का पाठ यह पर्व सिखाता है, लेकिन, बदलते समय व जीवनशैली पर चढ़े आधुनिकता के रंग ने इसके उद्देश्य, मनाने के तरीके व आधार को ही बदल दिया है। प्रकृति व परिवार से मन से जुड़ने की बात महज कथनी में रह गई है। शीतल होने का संदेश देना भी उपदेश तक है।

क्या है इसे मनाने की परंपरा
सतुआनी के अगले दिन यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन रिश्ते में बड़े लोग छोटों के सिरपर शीतल जल डालकर आशीष देते हैं। साथ ही इस दिन मीठा व ठंडा जल बांटने की परंपरा है। इससे यह संदेश मिलता है आने वाले मौसम में इसका दान करें, ताकि कोई प्यासा नहीं रहे। इस दिन चूल्हे का प्रयोग नहीं होता है। लोग बासी भात व दही का सेवन करते हैं। इसके दो संदेश है, पहला यह कि अब से खानपान में ठंडापन का होना आवश्यक है और दूसरा आज के बाद से बासी भोजन नहीं लेना चाहिए।

लोकपर्वों से अलग है जूड़शीतल का स्थान
आकाशवाणी के अवकाश प्राप्त पदाधिकारी डखराम गांव के सुरेन्द्र झा कहते हैं कि अन्य लोकपर्वों से अलग जूड़शीतल का स्थान है। यह सामाजिक समरसता, सामयिकता व प्रकृति प्रेम का पाठ पढ़ाने वाला त्योहार है। लेकिन, वर्तमान में इसके महत्व में कमी ¨चिंताजनक है। रमौली संस्कृत प्रतिष्ठान के प्राचार्य डा कामेश्वर चौधरी कहते हैं कि ज्योतिष, धर्मशास्त्र व प्रकृति में सूर्य का अहम स्थान है। मेष संक्रांति के दिन इनका अपनी राशि में संचरण होता है। इसे ध्यान में रखते हुए ही पूर्वजों ने जूड़शीतल मनाने की परंपरा की शुरूआत की थी।

शिकार करने की भी थी परंपरा | दशकों पूर्व तक शिकारमाही की भी परंपरा थी, लेकिन इसमें ऐसे पशुओं का ही शिकार करना था जो पेड़-पौधा अथवा प्रकृति को नुकसान पहुंचाते हैं। इतना ही नहीं शिकारमाही का यहां अर्थ किस जीव का वध करना नहीं था। साथ ही इस दिन मिट्टी व पानी का खेल होता था।

क्या आया है बदलाव| अब यह पर्व उस रूप में नहीं मनाया जाता है। मीठा व ठंडा पानी बांटने की औपचारिकता भर रह गई है। प्रकृति के बीच जाने की परंपरा समाप्त हो चुकी है। इक्के-दुक्के गांवों में इसका प्रचलन है, लेकिन आमतौर पर यह नहीं के बराबर हो रहा है। वर्तमान पीढ़ी के लोग तो इस पर्व को भूल ही गए हैं।

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