प्रभात खबर की एकतरफ़ा बहस, CAA आंदोलन के विरोध में और मोदी सरकार के पक्ष में तैयार कर रहा माहौल

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का देश भर में विरोध हो रहा है। इस कानून के विरोध का सबसे बड़ा आधार यह है कि यह भारत के संविधान के मूल भावना के खिलाफ है। हालांकि ऐसा नहीं मानने वालों की संख्या भी बहुत है।ऐसे माहौल में बिहार-झारखंड का एक प्रमुख हिंदी अखबार प्रभात खबर अपने संपादकीय पन्ने पर “संविधान पर केंद्रित विचारों की एक श्रृंखला” शुरु करता है। अखबार इस बहस की जरूरत बताते हुए, इस शृंखला का परिचय देते हुए कहता है कि वह “संविधान को लेकर देश भर में पक्ष-विपक्ष की चल रही बहस के बीच” यह श्रृंखला प्रस्तुत कर रहा है।और इस श्रृंखला के बहाने अखबार करता यह है कि वह सीएए के सरकार के फैसले के पक्ष में वैचारिक माहौल तैयार करता है।

इस शृंखला के तहत अखबार ने 21 से 24 जनवरी के बीच चार लेख प्रस्तुत किए। दो लेख तो आरएसएस से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संबद्ध रहे (या हैं) पत्रकारों के हैं। इनमें शामिल हैं वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय और ऑर्गनाइजर के पूर्व संपादक शेषाद्रि चारी। इनकी क्या राय सामने आई होगी, इसका बिना पढ़े ही सहज अनुमान लगाया जा सकता है।अन्य दो लेख संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप और पूर्व जज आरएस सोढ़ी के हैं। ये दोनों भी अपनी राय रखते हुए सीएए पर मोदी सरकार के फैसले की आलोचना नहीं करते हैं। बीते समय में इन दोनों की विभिन्न मसलों पर जैसी राय सामने आई है, उसे देखते हुए यह हतप्रभ करने वाला भी नहीं है।

तो इस तरह एक अखबार इस प्रस्थापना के साथ बहस आयोजित करता है कि किसी मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष दोनों है, मगर वह अखबार खुद ही उस मुद्दे पर अपनी बहस से विपक्ष की राय को मंच देने की जरूरत नहीं समझता है।यह घटना का जिक्र करने का मकसद किसी एक अखबार की आलोचना करना नहीं बल्कि इसके जरिए मुख्यधारा मीडिया का ‘न्यू नॉर्मल करैक्टर’ सामने रखना है। इस उदाहरण के बहाने यह सहज समझा जा सकता है कि आम तौर पर अखबार कैसे सुबह-सुबह सरकार की सोच, उसके एजेंडे को दिमाग में डालते हैं और दिन भर यह इंजेक्ट करने का काम न्यूज चैनल और डिजिटल पोर्टल का बड़ा हिस्सा करते रहते हैं।

यह लिखते हुए एक बात याद आ गई जिसके साथ अपने कीबोर्ड को आराम देना चाहूंगा।बात कुछ साल पहले की है। एक संघर्षशील पत्रकार दोस्त ने यह योजना बनाई कि वह बिहार के सत्तारूढ़ दल को अपनी पत्रिका जैसा कुछ निकालने का प्रस्ताव देंगे। इस प्रस्ताव पर स्थापित पत्रकार साथी ने उनको इस रास्ते पर अपनी ऊर्जा जाया नहीं करने की सलाह दी। उनका कहना था कि जब ‘सरकारी काम’ निरपेक्षता और जन-पक्षधरता के आवरण में अखबार कर ही रहे हैं तो ऐसा प्रस्ताव किसी सत्तारूढ़ दल को शायद ही पसंद आए।

तो इस बात के बाद गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका है, बह भी रहा है लेकिन गंगा निर्मल नहीं हुई है और आने वाले दिनों में ऐसा होने की संभावना भी नहीं है।


-Manish Shandilya(फेसबुक वाल से साभार )

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