सॉरी छठ मैया, इस बार ना गांव जा पाया और ना पैसे के अभाव में मां के लिए नई साड़ी खरीद पाया

PATNA : आज छठ पूजा है। छठ पूजा अर्थात वह पर्व जिसके लिए हम साल भर इंतजार करते हैं। छठ पूजा वह पर्व जो हमें आधुनिकता की दौड़ में भी परिवार के संग रहने का संदेश देती है। पिछले दस साल से मैं गांव में छठ मनाता रहा हूं। कितनी भी विषम परिस्थिति क्यों ना आ जाए लेकिन छठ पर बंक मारना हम बिहारियों का जन्म सिद्ध अधिकार है।

दिल्ली आए हुए महज दो महीने हुए हैं। एप्लीकेशन देने के बाद भी बॉस ने छुट्टी देने से साफ इंकार कर दिया है। पटना आफिस में रहता था तो सही गलत बोलकर गांव की ओर निकल लेता था। कुछ बहाना ना समझ में आए तो मोबाइल को स्वीच ऑफ कर लेता था। आफिस में डॉट ना पड़े इसलिए मां से फोन करके कहलवा देता था कि मैं बीमार हूं। वैसे सभी लोग पहले से जान रहे होते थे कि मैं झूठ नहीं महाझूठ बोल रहा हूं। एक बार तो रात के बारह बजे पटना से मोटरसाइकिल लेकर गांव की ओर निकल पड़ा। सुबह वाले अर्घ्य से पहले मैं गांव में था। लेकिन इस बार तो चाह कर भी नहीं जा सकता। प्लेने से जाना हम गरीबों के संभव थोड़े ना है। एक तरह से कहा जाए तो दिल्ली से बिहार जाना कोई खेले थोड़े ना है। इसलिए मन मार कर रह गया। जैसे जैसे दिन बीतेते गए वैसे मन उद्विलित हो उठा। नहाय खाय जैसे तैसे बीता। पहली दफा खरना पर प्रसाद नहीं खा पाया। दिल्ली में नए होने के कारण ना तो मैं किसी को जानता हूं और ना कोई मुझे जानता है।

आज संध्याकालीन अर्घ्य है। सुबह सुबह उठने के साथ मैनें सोसाइटी के गार्ड अंकल से पूछा- भैया यहां अगल बगल में कहीं छठ पर्व होता है। उन्होंने जानकारी नहीं होने की बात कही। मैं चुपचाप आफिस हो आया। दोपहर तक मन लगाकर काम किया। लेकिन मन नहीं लगा। मन तो मानों गांव में अटका हो। फेसबुक पर छठ के फोटो अपलोड होने लगे हैं। गांव के सारे दोस्त माथे पर दउरा रख अर्घ्य देने के बाद घाट से लौट रहे हैं और मैं एएसी आफिस में बैठकर काम कर रहा हूं। टीवी पर छठ पूजा का लाइव कर रहा हूं।

अचानक एक मैथिल कवि की कविता याद आने लगती है। सोचता हूं शायद उस कवि पर भी यही गुजरा रहा होगा। तभी तो उसने इसकी रचना करी है। मैं मन ही मन बुदबुदाने लगता हूं- ‘महंगी सौतिनियां सं बांचि जेता प्रीतम तं अगिला बरख गाम आइब, हे राणा माई, अंचरा पर नटुटा नचाएब, हे राणा माइ अंचरा पर नटुआ नचाएब’। अर्थात हे छठ महरानी अगर पैसे रहे तो अगला बरख गांव आउंगा और आंचर पर नटूआ नचाउंगा।

आफिस से जाने का टाइम हो चुका है। सारे सहकर्मी जा चुके हैं। मैं चुपचाप अपनी सीट पर बैठा हूं और मन ही मन छठ महरानी से कह रहा हूं-सॉरी छठ मैया, इसबार ना गांव आ पाया ना मां के लिए साड़ी खरीद पाया। बट आई प्रॉमिस अगले साल आपको अर्घ्य देने जरूर गांव जाउंगा।

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