पुरोहित की जरूरत नहीं, डोम के हाथ से सूप-दउरा तो मुस्लिम के हाथ से मिट्टी का चूल्हा लेते हैं व्रती

PATNA : छठ बिहार का सबसे बड़ा लोकपर्व है, क्योंकि वह पूरे समाज को किसी न किसी रूप में जोड़ता है। सब की भागीदारी तय करता है। इस पर्व में पुरोहित की कोई परंपरा नहीं है यानी व्रती सीधे छठी मइया से जुड़ते हैं। सीधे भगवान सूर्य से जुड़ते हैं। कोई मंत्र भी नहीं होता। ये एकमात्र त्योहार है, जिसमें ऊंची-नीची जाति के भेद के साथ ही, हिंदू-मुस्लिम की दूरी भी खत्म हो जाती है। हर वर्ग पूरी आस्था के साथ छठ पर्व में शामिल होता है। समाज ने जिस डोम जाति को अछूत बना दिया, वही छठ के लिए सूप, डलिया आदि बनाते हैं और सारे व्रती उसे स्वीकार करते हैं। ऐसा करते हुए हम उन्हें सम्मान भी देते हैं और सामाजिक एकरसता के प्रति अपनी आस्था भी दिखाते हैं। बांस से बनाए सूप की शुद्धता ही छठ की खासियत है। इस लिहाज से यह पर्व खुद में ईको फ्रेंडली सोच को भी समेटे हुए है। कुछ लोग पीतल के सूप का भी इस्तेमाल करते हैं पर ज्यादातर लोग बांस से बनाए सूप का ही। डोम जाति से आने वाली वीणा देवी बताती हैं कि पटना में वह बचपन से ही सूप-दउरा आदि बनाती रही हैं। छठ के लिए इसकी तैयारी कई दिनों पहले से करती हैं। उनका पूरा समाज इस काम में लगा है।

कुम्हार का काम करने वाले भी समाज की पिछड़ी जातियों में गिने जाते रहे हैं, लेकिन इस पर्व में उनकी भी बड़ी भागीदारी होती है। इनके बनाए मिट्टी के चूल्हे पर छठ के प्रसाद, कद्दू-भात, रसिया-पूड़ी, ठेकुआ, कसार-लड्डू आदि बनाए जाते हैं। इस तरह के चूल्हे को शुद्ध माना जाता है। छठ की आस्था ऐसी है कि यहां हिंदू-मुस्लिम की सीमा भी टूट जाती है। मुस्लिम समाज की महिलाएं भी हर साल मिट्टी के चूल्हे बनाती हैं, जिन्हें व्रती खुशी-खुशी खरीदते हैं। छठ व्रती यह नहीं देखते कि चूल्हा किसने बनाया, बल्कि यह देखते हैं कि चूल्हा मिट्टी का बना हुआ है कि नहीं। इस पर्व की सबसे बड़ी खासियत इसका अनुशासन है। अनाज को ठीक से धोने से लेकर उसे निगरानी के साथ सुखाना-पिसाना और व्रत के साथ सब कुछ पकाना होता है इसलिए इसे आत्मानुशासन का पर्व माना जाता है। कोई झूठ नहीं, कोई छल नहीं, क्योंकि व्रती मानते हैं कि छठी मइया से कुछ छिपाया नहीं जा सकता। सबके बावजूद पर्व के समापन के समय छठी मइया से माफी भी मांगी जाती है।

छठ में अर्घ्य सूर्य को देते हैं और पूजा छठी मइया की करते हैं। इसके पीछे का तर्क यह है कि प्रकृति देवी के एक प्रमुख अंश को देवसेना कहा गया है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक प्रचलित नाम षष्‍ठी है। यही स्थानीय बोली में छठी मइया हैं। छठ की बड़ी खासियत यह भी है कि इसमें उगते सूर्य को तो जल अर्पण करते ही हैं, डूबते सूर्य को भी अर्घ्य देते हैं। यह बिहार की आध्यात्मिक ताकत का प्रतीक है। छठ घाट पर किसी भी व्रती से प्रसाद लेने में किसी को हिचकिचाहट नहीं होती। प्रसाद लेने के बाद पैर छूकर आशीर्वाद लेने की भी परंपरा है। इसमें भी किसी को यह अभिमान नहीं रहता कि वह किसी ऊंची जाति से है। लोकपर्व छठ जातियों की, कर्मकांड की दीवार तोड़ देता है। कोई मुस्लिम भी छठ करे तो कोई हिंदू उसे नहीं रोकता, बल्कि इससे छठ की आस्था का संसार समृद्ध होता है।

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