पेट पालने के लिए बिहार के पूर्व CM का बेटा-पोता करता है दिहाड़ी मजदूरी, ना घर है और ना राशनकार्ड

To feed, the son of the former Bihar CM-grandson does daily wages, neither has a house nor a ration card. : यह तस्वीर पूर्णिया शहर के मधुबनी बाजार की है। यहां मजदूर वैसे ही खड़े हैं, जैसे किसी भी शहर में काम की तलाश में खड़े होते हैं। इस लिहाज से इस तस्वीर में कोई नयापन नहीं है। मगर जब आप घेरे में नजर आ रहे दो लोगों का परिचय जानेंगे तो हैरत में पड़ जाएंगे। ये दोनों उस व्यक्ति के वंशज हैं, जो व्यक्ति तीन दफा बिहार का मुख्यमंत्री रह चुका है।

जी हां, उनका नाम भोला पासवान शास्त्री है और आज उनकी जयंती है। मैं पहले भी अपने भाई बासुमित्र के साथ उनके गांव जा चुका हूँ और उनके परिजनों की बदहाली की कहानी लिख चुका हूँ। उनके पास रहने को घर नहीं है, राशनकार्ड नहीं बना है, भूमिहीन हैं। वगैरह। इस लिहाज से हम उनके परिजनों से ठीक से परिचित हैं, खासकर मेरा भाई जो कई बार उनके गांव जा चुका है।

इसलिये, पिछले दिनों जब उसने इन दोनों को मजदूरों की कतार में खड़ा देखा तो हैरत से भर उठा। आज उसकी रिपोर्ट एक अखबार में छपी है। वैसे तो किसी पूर्व मुख्यमंत्री के परिजन का मेहनत मजदूरी करना कोई बुरी बात नहीं है। आखिर हम ऐसा क्यों मानते हैं कि एक बार सीएम बनने के बाद किसी नेता के सात पीढ़ियों के इंतजाम हो जाये। यह अच्छी बात है भोला पासवान शास्त्री ने इस तरह नहीं सोचा, जब कि तीन बार सीएम बनने के अलावा वे इंदिरा सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे थे। इसके बावजूद उनकी मौत के बाद उनके खाते में इतने पैसे भी नहीं थे कि उनका अंतिम संस्कार किया जा सके। पूर्णिया के तत्कालीन डीएम ने उनका अंतिम संस्कार करवाया था।

यह जिक्र इसलिये मौजू है कि क्या आज के राजनेता इन लोगों से कुछ सीखना चाहेंगे? आज तो एक बार विधायक बनने और ही ताउम्र अच्छे खासे पेंशन का इंतजाम हो जाता है। पूर्व सीएम को ताउम्र सरकारी बंगला मिलता है। और राजनीतिक कनेक्शन उसे कभी पैसों की कमी नहीं होने देते। जाहिर है इस धन प्रधान युग में ऐसे लोगों की कहानी सिर्फ हैरत जगाने के काम आएगी, अनुकरणीय नहीं हो सकती। फिर भी लिखना तो अपना फर्ज है।

मनरेगा में मजदूरी कर पेट पालने को विवश है बिहार के पूर्व सीएम का परिवार : मिलिए बिहार के इस दलित मुख्यमंत्री के परिवार से जिन्हें तीन बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। जी हाँ, यह भोला पासवान शास्त्री का परिवार है जो पूर्णिया जिले के काझा कोठी के पास बैरगाछी गांव में रहता है। तस्वीर में इनकी हालत साफ नजर आती है और बिहार के दूसरे पूर्व मुख्यमंत्रियों से इनकी तुलना करेंगे तो जमीन आसमान का फर्क साफ नजर आएगा। हाल हाल तक यह परिवार मनरेगा के लिए मजदूरी करता रहा है। मगर पिछले कुछ सालों में इस बात को लेकर स्थानीय मीडिया में खूब ख़बरें आई। पता चला कि इसके बाद सरकार ने इनके लिए कुछ काम भी किये हैं। क्या किये हैं, यह देखने समझने के लिए आज मैं उनके गांव गया था।

बैरगाछी वैसे तो समृद्ध गांव लगता है, मगर शास्त्री जी का घर गांव के पिछवाड़े में है। जैसा कि अमूमन दलित बस्तियां हुआ करती हैं। हाँ, अब गांव में उनका दरवाजा ढूँढने में परेशानी नहीं होती क्योंकि वहाँ एक सामुदायिक केंद्र बना हुआ है। जिस पर उनका नाम लिखा हुआ है। पड़ोस की एक महिला कहती हैं सामुदायिक केंद्र इसी लिए बनवाया गया है ताकि ढूँढने में तकलीफ न हो।

केंद्र के अंदर जाता हूँ तो बिरंची पासवान मिलते हैं जो शास्त्री जी के भतीजे हैं। उन्होंने ही शास्त्री जी को मुखाग्नि दी थी। शास्त्री जी को अपनी कोई संतान नहीं थी। विवाहित जरूर थे मगर पत्नी से अलग हो गये थे। बिरंची कहते हैं, यह सामुदायिक केंद्र तो हमारी ही जमीन पर बना है। अपने इस महान पुरखे की याद में स्मारक बनाने के लिए हमलोगों ने यह जमीन मुफ्त में सरकार को दे दी थी।

उनकी बात सुनकर बड़ा अजीब लगता है। शास्त्री जी के कुनबे में अब 12 परिवार हो गये हैं जिनके पास कुल मिलाकर 6 डिसमिल जमीन थी। उसमें भी बड़ा हिस्सा इनलोगों ने सरकार को सामुदायिक केंद्र बनाने के लिए दे दिया है। अंदर जाता हूँ तो देखता हूँ एक-एक कोठली में दो-दो तीन-तीन परिवार कैसे सिमट सिमट कर रह रहे हैं। आखिर गरीबों में इतनी संतोष वृत्ति कहां से आती है।

यह सामुदायिक केंद्र राज्य सभा सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह के सांसद फण्ड से बना है। मकसद यह है कि 21 सितम्बर को उनकी जयंती पर जब गांव में समारोह हो और दलित राजनीति को चमकाने नेता लोग आयें तो गांव में समारोह स्थल की तकलीफ न हो।

बाकी इस सामुदायिक भवन में शादी ब्याह या किसी अन्य अवसर पर गांव के लोग उपभोग कर सकें ऐसी कोई बात नहीं सोची गयी। वैसे भी यह सामुदायिक स्थल एक दलित के दरवाजे पर बना है, स्वर्ण और समृद्ध तबका यहाँ बारात को ठहराने के लिए शायद ही मानसिक तौर पर तैयार हो। वैसे बिरंची कहते हैं, गांव में छुआछूत का माहौल अब बिलकुल नहीं है। गांव के लोग उन्हें शास्त्री जी की वजह से सम्मान की निगाह से देखते हैं।

शास्त्री जी वैसे ही शास्त्री हुए थे जैसे लाल बहादुर शास्त्री थे। यानी भोला पासवान जो निलहे अंग्रेजों के हरकारे के पुत्र थे ने बीएचयू से शास्त्री की डिग्री हासिल की थी। राजनीति में सक्रिय थे। इंदिरा गाँधी ने इन्हें तीन दफा बिहार का मुख्यमंत्री और एक या दो बार केंद्र में मंत्री बनाया। मगर इनकी ईमानदारी ऐसी थी कि मरे तो खाते में इतने पैसे नहीं थे कि ठीक से श्राद्ध कर्म हो सके।

बिरंची बताते हैं कि पूर्णिया के तत्कालीन जिलाधीश ने इनका श्राद्ध कर्म करवाया था। गांव के सभी लोगों को गाड़ी से पूर्णिया ले जाया गया था। चुंकि मुखाग्नि उन्होंने दी थी सो श्राद्ध भी उनके ही हाथों सम्पन्न हुआ। सरकार की ओर से कुछ मिला? इस लिहाज से कि शास्त्री जी के परिजन हैं। कहते हैं, हाँ एक या दो इंदिरा आवास मिला है। हालाँकि उन्होंने कभी कुछ माँगा नहीं।

जब सामुदायिक केंद्र बन रहा था तो कई लोगों ने सलाह दी कि जमीन की कीमत ही मांग लीजिये मगर बिरंची ने इनकार कर दिया। कहा, अपने बाप दादा की प्रतिष्ठा बचाना ज्यादा जरूरी है। कहीं लोग यह न कहे कि शास्त्री जी कितने इमानदार थे और उनके परिजन कितने लालची हैं। उन्होंने बिना सोचे जमीन दे दी।

अफ़सोस इस बारे में सरकार और उसके नुमायिन्दों ने भी कुछ नहीं सोचा। यह उस राज्य में हो रहा है जहाँ पूर्व मुख्यमंत्री को तरह-तरह की सुविधाएँ देने के लिए अलग से कानून बने हैं। क्या इस ईमानदार पूर्व मुख्यमंत्री के निस्वार्थ परिजनों के लिए कुछ करने की बात कभी हमारे हुक्मरानों के मन में नहीं आई और बिना कुछ सोचे उन्होंने शास्त्री जी को अपनी दलित राजनीति चमकाने का मोहरा बना लिया।
लेखक : पुष्यमित्र, वरिष्ठ पत्रकार, पटना

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *