मैथिली-भोजपुरी में स्कूली पढ़ाई के सवाल को क्यों टालती है बिहार सरकार?

Desk: अभी हाल में मैथिली दिवस पर राजधानी पटना में आयोजित एक कार्यक्रम में बिहार के पूर्व मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) के सलाहकार रह चुके उनके करीबी अंजनी कुमार सिंह यह कह कर विवादों के घेरे में आ गये कि राज्य के प्राइमरी स्कूलों में मैथिली (Maithili) मीडियम से पढ़ाई इसलिए शुरू नहीं की जा सकती, क्योंकि मिथिला के लोग खुद मैथिली मीडियम से पढ़ना नहीं चाहते. इस तरह उन्होंने मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा की मैथिली भाषियों की बरसों पुरानी मांग को टाल दिया और इसका सारा जिम्मा मैथिली भाषी लोगों पर ही डाल दिया. मगर यह कहते हुए शायद वे भूल गए थे कि केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में लागू की गयी नई शिक्षा नीति में पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई मातृभाषा, क्षेत्रीय या स्थानीय भाषा के माध्यम से कराने की बात कही गयी है. साथ ही यह भी कहा गया है कि जरूरत पड़ने पर इसे बढ़ाकर आठवीं तक किया जा सकता है.

दरअसल, अंजनी कुमार सिंह की यह टिप्पणी बिहार की ब्यूरोक्रेसी के उस मिजाज की वह अभिव्यक्ति है, जिसके तहत वह अपनी हर नाकामी की वजह पब्लिक पर डाल कर बचने की कोशिश करता है. वरना एक तरफ नई शिक्षा नीति में मातृभाषा को माध्यम बनाकर प्राथमिक शिक्षा देने की बात हो और दूसरी तरह यह टालमटोल भरा जवाब हो यह सही नहीं लगता. नई शिक्षा नीति तो 2020 में लागू की गयी है, मगर बिहार में लंबे अरसे से मैथिली और भोजपुरी जैसी विस्तृत असर और दायरे वाली भाषाओं में स्कूली शिक्षा देने की मांग होती रही है.

राहुल सांकृत्यायन जैसे अध्येता ने आजादी से पहले 1940 के दशक में ही पुरजोर तरीके से भोजपुरी क्षेत्र में भोजपुरी माध्यम से शिक्षा देनी की मांग को उठाया था. जहां तक मैथिली भाषा का सवाल है, तो इसके माध्यम से 1973 तक स्कूलों में पढ़ाई लिखाई चलती रही. उस वक्त सभी विषयों की किताबें मैथिली में होती थीं. मगर हाल के दशकों में धीरे-धीरे बिहार में इन लोकभाषाओं को हाशिये पर डाल दिया गया. अब तक स्कूलों में मैथिली जरूर एच्छिक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है, भोजपुरी की पढ़ाई सीधे कॉलेज के स्तर पर होती है. राज्य में अब सिर्फ हिंदी, संस्कृत, उर्दू और बांग्ला माध्यम से पढ़ाई होती है.

मैथिली, मगही और भोजपुरी ऐसी बिहारी भाषाएं हैं जिनका बड़ा विस्तृत दायरा है. बोलने वालों की आबादी के हिसाब विश्व की 100 प्रमुख भाषाओं में इनकी गिनती होती है. इनमें भोजपुरी जहां 32वें स्थान पर है, मैथिली 43वें और मगही 64वें स्थान पर आती हैं. इसके बावजूद बिहार सरकार इन भाषाओं में पढ़ाई नहीं शुरू करवा रही है तो इसके पीछे उसकी टाल-मटोल की नीति ही जिम्मेदार लगती है. मैथिली तो देश की उन 22 भाषाओं में है, जिसे संविधान की अष्टम अनुसूचि में स्थान मिला है. इस बात का उल्लेख करके मैथिली के समर्थक प्राथमिक शिक्षा में इसे शिक्षा का माध्यम बनाने की मांग को वजनदार बनाने की कोशिश करते हैं. क्योंकि आठवीं अनुसूची में दर्ज भाषाओं की पढ़ाई तो मांग के आधार पर पूरे देश में होनी है. इनमें से ज्यादातर भाषाओं को माध्यम बनाकर पढ़ाई हो भी रही है. इनमें बोडो जैसी भाषा भी शामिल है, जिसे बोलने वालों की आबादी मैथिली के मुकाबले काफी कम है.

हालांकि कई लोगों का यह मानना है कि आज के बदले माहौल में लोग मैथिली, भोजपुरी या मगही जैसी भाषाओं के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा लेना शायद ही पसंद करें. क्योंकि इससे उनके कैरियर में आगे बढ़ने की संभावना कम हो जायेगी. कई लोग तो यह भी कहते हैं मैथिली और भोजपुरी पढ़कर आदमी अधिक से अधिक शिक्षक और प्रोफेसर बन सकता है. इसलिए यह मांग बहुत व्यावहारिक नहीं है. मगर वे लोग तथ्यों को लेकर चूक कर रहे हैं. यहां मांग प्राथमिक स्कूलों में यानी पांचवी कक्षा तक ही स्थानीय भाषाओं को माध्यम बनाने की है. पांचवी के बाद उनके साथ अंग्रेजी विषय वैसे ही जुड़ जाना है. उच्च और उच्चतर कक्षाओं में उनके पास अपनी पसंद का विषय चुनने का हमेशा विकल्प रहेगा.

दरअसल, प्राथमिक स्कूलों में स्थानीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की मांग का मकसद सिर्फ भाषाई अस्मिता को बढ़ावा देना नहीं है. इसके पीछे यह भावना भी है कि कोई भी बच्चा किसी भी चीज को अपनी मातृभाषा में अधिक आसानी से सीख सकता है. वह जिस भाषा को नहीं समझता, उसके माध्यम से चलने वाली कक्षाओं में वह चुप होकर हर बात में हां में हां मिलाने पर मजबूर हो जाता है. कक्षा में बतायी गयी बातें उसके सिर के ऊपर से गुजर जाती हैं. यह मसला सिर्फ उस वर्ग का नहीं जो अपने बच्चों को नर्सरी से ही अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहता है, ताकि वह वाइट कॉलर जॉब हासिल कर सके. यह सवाल उस बड़ी आबादी का है, जिसके बच्चे पहली दफा स्कूल जा रहे हैं. हिंदी भी उसके लिए अजनबी भाषा है.

बिहार में अब भी बड़ी आबादी ऐसी ही है जिसकी पहली या दूसरी पीढ़ी ही स्कूलों में पहुंची है. खास तौर पर बिहार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत संचालित सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 95 फीसदी से अधिक बच्चे ऐसे ही हैं, जो अत्यंत गरीब समुदाय के हैं. बाकी बच्चे तो प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ते हैं, जहां नर्सरी से ही अंग्रेजी का दबदबा रहता है. सरकारी स्कलों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे हिंदी में भी सहज नहीं हैं और हिंदी माध्यम की पाठ्यपुस्तकों की भाषा उसके लिए अबूझ पहेली जैसी है. प्रथम संस्था द्वारा हर साल जारी होने वाली असर रिपोर्ट भी यही कहती है कि इन बच्चों के लिए हिंदी पढ़ना और दूसरे विषयों को समझना आसान नहीं होता. इसलिए स्थानीय भाषाओं में पढ़ाई इन बच्चों के लिए वरदान हो सकती है.कई लोग ऐसा मानते हैं कि स्थानीय भाषाओं के प्रति किसी बैर की वजह से बिहार सरकार इन्हें स्कूली शिक्षा का माध्यम नहीं बना रही. मगर सच यही है कि बिहार सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी कार्यों में जरूरी खर्च करने से परहेज करती है, इसलिए वह इन सवालों को टालती रहती है. किसी स्थानीय भाषा में पढ़ाई शुरू करवाने का अर्थ है, उस भाषा में पाठ्यपुस्तक तैयार कराना, उसके लिए शिक्षकों की बहाली और अलग परीक्षा बोर्ड की स्थापना करना. बिहार सरकार की रुचि ऐसे कार्यों में धन खर्च करने की नहीं रहती. राज्य सरकार का ज्यादातर धन सड़क, पुल-पुलिया, फ्लाईओवर और आलीशान भवनों के निर्माण पर खर्च होता है. इसलिए ऐसा कार्य हमेशा टलते रहते हैं.

मगर अब जबकि नई शिक्षा नीति में सबसे अधिक जोर स्थानीय भाषाओं में पढ़ाई पर है तो बिहार सरकार को अपना यह टाल-मटोल वाला रवैया छोड़ना चाहिए औऱ आगे बढ़कर इस मांग को स्वीकार करना चाहिए. इसी में राज्य के लाखों बच्चों की भलाई है. (डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Source: News18

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