अब मां नहीं मरेगी… डॉक्टरों ने कैंसर की दवाई ढूंढ ली है, मैं बहुत छोटा था जब अम्मा दुनिया छोड़ गई

काश मां होती! मां होती तो बहुत खुश होती। वो इस खबर से ही खुश हो जाती कि कैंसर की दवा ढूंढ ली गई है। देश के जाने-माने पत्रकार, रिपोर्टरों की नज़र इन खबरों पर कम ही होती है। होती भी है, तो इस तरह नहीं होती कि वो पहली हेडलाइन बन जाए या फिर पहला पूरा पन्ना विज्ञान की इस खोज को समर्पित कर दिया जाए। कल जब मैं किसी साइट पर ये खबर पढ़ चुका था तो मेरी आंखें चमक उठीं। मां की बहुत याद आई। मां कैंसर से मरी थी। मैं बहुत छोटा था। अपनी बीमार मां से मैंने मां से बहुत बार झूठ बोला था, “मां तुम इस बीमारी से ठीक हो जाओगी।” मेरे ऐसा कहते ही मां मेरी ओर आशा भरी नज़रों से देखती थी। वो चाहती थी कि मेरे कहे पर वो भरोसा करे। मां को बेटे पर भरोसा था। पर बीमारी के ठीक होने पर नहीं। मां के पास भरोसे का कोई ठोस आधार था भी नहीं। उसका इलाज करने वाले डॉक्टर ही उसे ये भरोसा नहीं दिला पाए थे।

मां की बीमारी के दिनों में मैं ‘अँखियों के झरोखों से’ फिल्म देख कर आया था। फिल्म में हीरोइन को कैंसर हो जाता है और वो मर जाती है। लेकिन मां को सुनाने के लिए मैंने पूरी कहानी मन में बदल ली थी। मां पूछ रही थी, “फिल्म कैसी लगी?”
मैं इस सवाल का इंतज़ार कर रहा था। मैंने मां से नज़रें चुरा कर कहा था, “मां फिल्म में हीरोइन को कैंसर हो गया था। वो ठीक हो गई।” मां की आंखें चमकी थीं।
“ठीक हो गई?”

हां मां। विज्ञान बहुत आगे बढ़ गया है। अब कैंसर ठीक होने लगा है।”
एक पल के लिए ही सही, मां का चेहरा चमकने लगा था। उस दिन मां ने मेरी झूठी कहानी को मन में विश्वास का आधार बना लिया था। मैं बहुत छोटा था। लेकिन कैंसर का अर्थ समझने लगा था।
मैं चाहता था कि मां बच जाए।
मैंने डॉक्टर अंकल से पूछा था कि मां ठीक तो हो जाएगी न? डॉक्टर अंकल ने मेरी ओर देख कर कहा था, “ईश्वर की मर्ज़ी।”
डॉक्टर थे शेखर सुमन के पिताजी।
“ईश्वर की मर्ज़ी? फिर आपके डॉक्टर होने का क्या फायदा?”
“संजय बेटा, डॉक्टर भगवान नहीं होते हैं।”
“अंकल, मैं डॉक्टर बनूंगा। बहुत बड़ा अस्पताल खोलूंगा। वहां कैंसर के मरीज़ ठीक हो जाएंगे।”
“अभी तुम छोटे हो। बड़े होगे तो बहुत-सी बातें समझ जाओगे।”
मुझसे मां की पीड़ा नहीं देखी जाती थी।
एक दिन मैंने डॉक्टर अंकल से ये भी पूछ लिया था कि मां कब तक ज़िंदा रहेगी?
“बहुत कम। शायद इस मार्च तक।”
मार्च खत्म होने में अभी समय था। जब मुझे यकीन हो गया कि मां नहीं बचेगी तो मैंने अपनी डायरी के एक पन्ने पर लिखा था, “भगवान, मेरी मां को मृत्यु दे दो। उसकी तकलीफ असह्य है।”
मां मार्च के अंत में भगवान के पास चली गई। मेरा मन डॉक्टर बनने से हट गया था। जब डॉक्टर कुछ कर ही नहीं सकते, फिर क्या फायदा डॉक्टर बन कर। आदमी को भगवान बनना चाहिए। जो डॉक्टर कैंसर की दवा ढूंढ कर ले आएगा, वही भगवान होगा।
42 साल पहले मां के मरने के बाद मैंने पिताजी से कहा था कि देखिएगा, एक दिन कैंसर की दवा बन जाएगी। फिर कोई कैंसर से नहीं मरेगा। पिताजी ने कुछ नहीं कहा था। क्या कहते? उनकी पत्नी चली गई थी। चली तो मेरी मां भी गई थी, पर मेरे मन में ये बात बैठ गई थी कि और किसी की मां अब इस दुनिया से कैंसर के कारण नहीं जाए। इस दुनिया से कोई कैंसर से नहीं मरे। मरने वाला तो मर जाता है। पीछे रह जाते हैं उसके संजू।


सिर्फ 42 साल बीते हैं। कल मैंने पढ़ा कि कैंसर की दवा मिल गई है। वैज्ञानिकों ने परीक्षण में पता लगा लिया है कि उस दवा के सेवन से कैंसर सौ फीसदी खत्म हो जाता है। अमेरिका में अभी तक कैंसर के 18 मरीज़ों पर इसका परीक्षण किया गया है। सब ठीक हो गए। उनके शरीर से कैंसर मिट गया है।
दवा का नाम है-डॉस्टरलिमेब।
मैंने पढ़ा है कि ये दवा लैब में तैयार अणुओं की दवा है, जो खास एंटीबॉडी के तौर पर काम करती है। विशेषज्ञों के मुताबिक, ये एक मोनोक्लोनल दवा है। मोनोक्लोनल एंटीबॉडी कैंसर कोशिकाओं की सतह पर पीडी-1 नामक खास प्रोटीन के साथ मिलकर काम करती है। ये कैंसर कोशिकाओं की पहचान करके उन्हें नष्ट कर देती है। संजय सिन्हा ने जितनी खबरें मिलीं, सब पढ़ गए। जिन 18 रोगियों को ये दवा दी गई, उनके शरीर से ये बीमारी गायब हो गई। मरीज जिन्हें पहले डॉक्टरों ने कह दिया था कि मार्च तक ही जिंदगी है, उनकी ज़िंदगी में जून आ गया। अब वो इस बीमारी से नहीं मरेंगे।
अभी 18 बचे हैं। मां होती तो मैं उसे तुरंत अमेरिका ले जाता। वहां डॉक्टर अंकल से कहता कि आप मां पर भी इस दवा का परीक्षण कीजिए। डॉक्टर ऐसा करते, मां एकदम ठीक हो जाती।
मां होती तो मेरी ज़िंदगी में पता नहीं क्या-क्या होता। जिन बच्चों की मां होती हैं, वो संसार में सबसे भाग्यशाली होते हैं।
मैं बहुत खुश हूं। मेरी मां नहीं रही। पर संसार में बहुत से संजुओं की माएं अब कैंसर से नहीं मरेंगी। अभी 18 मरीज ठीक हुए हैं। बहुत जल्दी सब ठीक होने लगेंगे। सबको दवा मिल जाएगी।
मैंने कहा न कि जो कैंसर की दवा ढूंढ निकालेगा वही भगवान होगा। वो सारे डॉक्टर भगवान हैं जिन्होंने
डॉस्टरलिमेब की खोज कर ली है।
मैं सभी से कहना चाहता हूं कि किसी तरह अपने को कुछ साल बचाए रखिए। बहुत जल्द विज्ञान ऐसी दवा लेकर आने वाला है जिससे आदमी की औसत उम्र डेढ़ सौ साल हो जाएगी। बस कुछ साल।
जीने के लिए क्या करना है?
अपना ख्याल रखिए। ताजा खाइए। अच्छा खाइए। कम खाइए। थोड़ी शारीरिक मेहनत कीजिए। जीवन में कोई गलत काम मत कीजिए, ताकि लंबी उम्र में मन में कोई अपराध बोध न रहे। गलत काम किसी को पता भले न चले, मन बहुत कचोटता है। मन को कचोटने से बचाइए। लोगों की मदद कीजिए। जितना संभव हो नज़रिया वैज्ञानिक रखिए। उन लोगों से दूर रहिए, जो नकारात्मक बातें करते हैं। जो समाज को बांटते हैं। आपको अधिक दिन जीना है तो जीवन का खुशहाल होना बहुत ज़रूरी है। दुखी जीवन लंबा होकर बोझिल हो जाता है।
और बहुत सी बातें है जीने के लिए। संजय सिन्हा समय-समय पर आपको सब बताते रहते हैं। पर आज अभी यही कि अगर आप किसी उदास मरीज के पास हों, किसी को जानते हों तो उसे ये बताइए कि आपने संजय सिन्हा से सुना है कि अब कैंसर से कोई नहीं मरेगा। भगवान डॉक्टरों ने उस संजीवनी की तलाश कर ली है, जिससे आदमी कैंसर मुक्त हो जाएगा। मेरा दावा है, साल दो साल में ये दवा सबके पास पहुंच जाएगी।
उम्मीद का दामन कभी मत छोड़िएगा। मैंने मां के जाने के बाद भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा था। मुझे यकीन था कि एक दिन ऐसा हो जाएगा जब किसी और की मां इस बीमारी से नहीं मरेगी। 42 साल लगे। पर यकीन सच हो गया है।
अपना ख्याल रखें। अपनों का ख्याल रखें। ख्याल रखना भी दवा की तरह कारगर होता है।
जीवन अनमोल है। उसे अनर्गल बातों में जाया न करें। करने को बहुत कुछ है। खुश रहने को बहुत छोटी-सी वजह भी बहुत बड़ी हो सकती है। जैसे संभव हो, बस खुश रहिए।
जहां खुशी है, वहीं ज़िंदगी है।
फिर फिल्म बनेगी- अंखियों के झरोखों से। मां को सुनाई मेरी झूठी कहानी 42 साल बाद सच में बदल जाएगी। हीरोइन ठीक हो जाएगी। फिर किसी संजू को डायरी के पन्ने पर नहीं लिखना होगा कि हे भगवान मेरी मां को मृत्यु दे दो। फिर कोई डॉक्टर अंकल नहीं कहेंगे कि मार्च तक। बस। ये सब होगा। क्योंकि ये हो चुका है।
अब मां रहेगी सदा के लिए।

SanjaySinha

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