जानें क्या होगा अगर कभी ना बन सकी कोरोना वायरस की वैक्सीन ?

Patna: कोरोना वायरस के चलते हुए लॉकडाउन की वजह से पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था भी डगमगा गई है. ऐसे में आज हर इंसान को उस वैक्सीन का इंतजार है, जो इस भयंकर संकट से हमे निकाल पाए. हालांकि, इस इसकी वैक्सीन तैयार करना वैज्ञानिकों के लिए आसान काम नहीं है. पूरी दुनिया में वैक्सीन के असफल ट्रायल इस बात के सबूत हैं.

तो वहीं अब ऐसे में जरा सोचिए, अगर कोरोना वायरस को खत्म करने वाली वैक्सीन कभी बन ही न पाए या वैक्सीन बनने में बहुत ज्यादा समय लग जाए, तो क्या होगा? लंदन के इम्पीरियल कॉलेज के प्रोफेसर और ग्लोबल हेल्थ एक्सपर्ट डेविड नबैरो ने सीएनएन के हवाले से इस बारे में विस्तार से जानकारी दी. डेविड नबैरो ने कहा कि दुनियाभर में कई ऐसे वायरस हैं जिनकी आज तक कोई वैक्सीन नहीं बन सकी है. वैक्सीन को लेकर ये पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता कि वो कब तक बनेगी और अगर बनेगी भी तो क्या सुरक्षा के सभी परीक्षणों पर खरी उतरेगी.

साल 1984 में एचआईवी वैक्सीन को लेकर अमेरिका की उस वक्त रहीं स्वास्थ्य मंत्री मार्गरेट हेकलर ने कहा था कि दो साल के भीतर एचआईवी वैक्सीन बन जाएगी. हालांकि करोड़ों मौत होने के बावजूद आज तक एचआईवी की वैक्सीन डेवलप नहीं हो पाई है. एक्सपर्ट का कहना है कि जब तक कोविड-19 का कोई इलाज सामने नहीं आ जाता या वैज्ञानिक इसकी वै क्सीन नहीं खोज लेते तब तक हमें इसके साथ जीने का तरीका सीख लेना चाहिए. उन्होंने कहा, ‘कोरोना के बाद दुनियाभर में लॉकडाउन की पाबंदियों को धीरे-धीरे हटाना चाहिए.’

ऐसी परिस्थितियों में टेस्टिंग और शारीरिक जांच कुछ समय के लिए हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन जाएंगे. हालांकि, इस दौरान कई देशों में तो अचानक सेल्फ आइसोलेशन तक के निर्देश जारी होने लगेंगे. वैक्सीन बनने के बावजूद भी कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. शायद यह महामारी हर साल लोगों के सामने बड़ी मुसीबत बनकर खड़ी रहे और मौत के आंकड़े साल दर साल यूं ही बढ़ते रहें.

वहीं, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिसीज़ के डायरेक्टर डॉ. एंथोनी फॉसी समेत दुनियाभर में वैज्ञानिक 12 से 18 महीने में वैक्सीन बनने का दावा कर रहे हैं. नेशनल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन के डॉ. पीटर हॉट्ज़ कहते हैं, ‘ऐसा बिल्कुल नहीं है कि कोरोना वायरस की वैक्सीन बन ही नहीं सकती है, लेकिन इसे बनाना किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं होगा.’

डॉ. पीटर हॉट्ज़ का कहना है कि कोरोना वैक्सीन न बनने की स्थिति में हमारे पास ‘प्लान बी’ होना भी जरूरी है. यानी अगर वैज्ञानिक कई अरसों तक कोरोना वायरस की वैक्सीन नहीं बना पाते तो इंसानों को इसके साथ ही जीने की आदत डाल लेनी होगी. पीडियाट्रिशियन एंड इंफेक्शियस डिसीज के स्पेशलिस्ट पॉल ऑफिट का कहना है कि एचआईवी/एड्स का फ्रेमवर्क बताता है कि एक गंभीर बीमारी के रहते हुए भी इंसान जी सकता है. एचआईवी में प्रोफिलैक्सिस या प्रैप जैसी रोजाना ली जाने वाली निवारक गोलियां पहले भी इंसानों के लिए बीमारी का जोखिम कम कर चुकी हैं.

वैज्ञानिकों ने अब तक एंटी इबोला ड्रग रेमडेसिवीर, ब्लड प्लाज्मा ट्रीटमेंट से लेकर हाइड्रोक्लोरोक्वीन पर प्रयोग किए हैं. नॉटिंघम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कीथ नील का कहना है कि कोविड-19 के लिए अब तक जिन भी दवाइयों पर परीक्षण हुआ है, वे सभी बेस्ट हैं. प्रोफेसर कीथ के मुताबिक, इस बीमारी को खत्म करने के लिए हमें बड़े पैमाने पर रैंडम कंट्रोल ट्रायल करने होंगे. अब तक हुए शोध के बारे में उनका कहना है कि जमीनी हकीकत जाने बिना इस तरह के रिसर्च की बुनियाद पर कामयाबी हासिल नहीं की जा सकती है.

कोविड-19 में काम आने वाली ड्रग्स का असर एक हफ्ते के अंदर दिख जाना चाहिए. यदि कोई दवा आईसीयू में भर्ती मरीज का औसत समय कम कर देगी तो निश्चित ही अस्पताल में रोगियों की भीड़ इकट्ठा नहीं होगी. दूसरा, रेमडेसिवीर जैसी दवाइयों का प्रोडक्शन भी इतना कम है कि उसे तेजी से पूरी दुनिया में उपलब्ध कराना भी मुश्किल काम है.

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