रांची पागलखाने से इलाजकर लौटे वसिष्ठ बाबू का सम्मान बिहारी समाज कैसे करता, इसलिये छोड़ दिया

Ashutosh Kumar Pandey

जनवरी 1974 में वशिष्ठ बाबू बीमार हुए तो उन्हें राँची के आरोग्यशाला में भर्ती करा दिया गया। जिसे पागलखाना कहा जाता है। जो समाज मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को पागल कहके हेय दृष्टि से देखता हो वह वशिष्ठ बाबू को कैसे इज्जत देता।

हिंदी समुदाय आत्ममुग्ध रहता है। स्वादिष्ट भोजन में तीन किस्म की सब्जियों के साथ वाह वाह करने के व्याधी से ग्रसित रहता है। बहरहाल, हिंदी समाज विद्वानों को बरतने की तमीज़ के क़ाबिल नहीं हुआ है। वशिष्ठ नारायण सिंह इसके अपवाद नहीं है। यहां का समुदाय हिन्दू कुंठा का भयावह शिकार है।

यहाँ शादी-ब्याह, बड़ी गाड़ियां, मोटी तनख्वाह वाली नौकरी आदि देखने पर इज्जत देना जानता है। अच्छे, ब्रांडेड, महंगे कपड़ों और बड़े पद वालों को शक्तिशाली, प्रभावशाली के साथ विद्वान व्यक्ति माना जाता है। यहाँ हर व्यक्ति से यह पूछा जाता है कि आपने समाज को क्या दिया। मगर समाज कभी यह नहीं बताया कि उसने उस व्यक्ति को क्या दिया। हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि हिंदी समुदाय की आधी ऊर्जा बेटियों की शादी करने में लगा देता है।

कार्ल मार्क्स कई मुल्कों के निर्वासित होने बाद ब्रिटेन में शरण पायी थीं। उनके एक धनि विद्वान मित्र रहे फ्रेडरिक एंगेल्स। जिन्होंने कार्ल मार्क्स को हमेशा आर्थिक मदद पहुचाई और साथ में कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो लिखा। दुनिया भर के मुल्कों में स्वास्थ्य और शिक्षा को मुफ्त करने के लिए सरकारें कदम उठाती है। भारत ही ऐसा मुल्क है जहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य बजट में कटौती की जाती है। भारत का हिंदी समुदाय पश्चिमी दुनिया के कपड़ों और विलासितापूर्ण जीवन का नकल तो किया मगर उसके सांस्कृतिक वैचारिक स्वर के कसौटी से कुछ नहीं सीखा। सिर्फ इस घमंड में चूर रहा कि वह आदिकाल से विश्व गुरू रहा है।

जिस मुल्क की आधी आबादी का विजन राम मंदिर बनाने और मस्जिद को ध्वस्त करने में लगा हो वहां वशिष्ठ बाबू आते और चले जाते हैं। कोई ध्यान नहीं देता। आज JNU जैसे शिक्षण संस्थान को ध्वस्त करने और उसे बदनाम करने की पुरजोर कोशिश हो रही हो क्या लगता है वह मुल्क वशिष्ठ बाबू के काबिल है। जहां गाँधी, नेहरू, अंबेडकर को उनके जाति के लिए गालियां दी जाती है। उस समाज का शव किसी कूड़े पर पड़े मिले तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

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