नीतीश कुमार जातीय जनगणना के लिए क्यों बेताब हैं?

नीतीश कुमार 90 के दशक में पिछड़ी जातियों के उभार की राजनीति की उपज हैं. लेकिन लालू यादव को हराने के लिए उन्होंने उस राजनीति को गले लगाया जो पिछड़ी जातियों के उभार को नष्ट करने वाली रही है. वो है- हिन्दुत्व या हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति.

पिछड़ी जातियों के उभार की राजनीति की प्रतिक्रिया में ही हिन्दुत्व की राजनीति आई और इस राजनीति ने मंडल की राजनीति को हाशिये पर धकेल दिया.

नीतीश कुमार पिछले 15 सालों से बिहार की सत्ता में हिन्दुत्व के घोड़े पर सवार हैं. इस बार के यानी 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें अहसास हो गया कि हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति उन्हें अप्रासंगिक कर चुकी है.

लालू यादव भले बिहार की सत्ता में पिछले डेढ़ दशक से नहीं हैं लेकिन उनकी राजनीति की प्रासंगिकता और मास लीडर की भूमिका अभी ख़त्म नहीं हुई है. नीतीश कुमार को बख़ूबी अहसास है कि हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के वे पिछलग्गू बन चुके हैं और अब उससे पिंड छुड़ा अपनी प्रासंगिकता साबित करने में लगे हैं.

ऐसे में उन्हें जातीय जनगणना एक अच्छा मौक़ा दिख रहा है और उसे लपकने में लगे हैं. नीतीश अब पिछड़ी जातियों की ताक़त को हिन्दू राष्ट्रवाद के सामने खड़ा करना चाहते हैं. इसके लिए वो तेजस्वी और दूसरे विपक्षी पार्टियों के साथ भी आने को तैयार हैं. लेकिन नीतीश कुमार बहुत देर कर चुके हैं. पिछड़ी जातियों का बड़ा तबका हिन्दुत्व की राजनीति से कन्वेंस है.

नीतीश मंडल से कमंडल में आकर फिर मंडल की ओर रुख़ करना चाहते हैं. लेकिन हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले अब ज़्यादा चालाक हैं क्योंकि ये मंडल और कमंडल दोनों को एक साथ साध रहे हैं.

रजनीश, BBC

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