अगणित मानसमे रहब बनल हे अमर ! हमर शुचि राजकमल : नागार्जुन

PATNA : आज के दिन ही अर्थात 19 जून 1967 को हिंदी एंव मैथिली साहित्य सरोवर के “राजकमल” राजकमल चौधरी ( फुल बाबु ) ने इस दुनिया से विदा ली थी। राजकमल चौधरी के सम्‍बन्‍ध में किसी तथ्य की सत्यता तक पहुंचने के क्रम में निरंतर याद रखा जाना चाहिए कि राजकमल एक ऐसे विवादास्पद व्यक्तित्व का नाम है, जो स्वयं संदेह और विवाद में गहन अभिरुचि रखते थे। यहां तक कि अपने सम्‍बन्‍ध में किसी तथ्य को सही-सलामत रहने देने में उनकी अभिरुचि नहीं थी।

राजकमल चौधरी का जन्म १३ दिसम्बर १९२९ को ननिहाल रामपुर मे हुआ था। हलाकि राजकमल चौधरी के जन्म-स्थान के संदर्भ में भी अनेक भ्रांतियां हैं, जो अति विचित्र-सी लगती हैं। राजकमल चौधरी की पितृ-भूमि निस्संदेह सहरसा जिले अंतर्गत महिषी गाँव है, और इनके बचपन का अधिकांश समय महिषी में ही बीता था । राजकमल चौधरी का असली नाम मणींद्र नारायण चौधरी था। यह नाम उन्हें उनके पिता मधुसूदन चौधरी ने दिया था।

राजकमल चौधरी, पंडित मधुसूदन चौधरी की द्वितीया पत्नी, त्रिवेणी देवी के तीन पुत्रों में ज्येष्ठ हैं। राजकमल चौधरी के दो सहोदर भाई और एक बहन भी थे । राजकमल चौधरी जब छह-साढ़े छह वर्षों के थे, उसी समय उनकी मां का देहांत हो गया और पिता ने कुछ ही दिनों के बाद दूसरी शादी कर ली। राजकमल की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता के साथ विभिन्न शहरों में सम्‍पन्न हुई। जयनगर में उनके पिता उच्च विद्यालय में शिक्षक थे। लोअर प्राइमरी उन्होंने वहीं से किया।

rajkamal

राजकमल चौधरी के पिता मधुसूदन चौधरी कट्टर विचारों के परम्‍परागत मैथिल ब्राह्मण थे। राजकमल के पिता बुद्धिमान और विवेकी होने की बावजूद कामुक और स्त्री-शरीर के दास थे, ऐसा राजकमल के उद्धरणों से ही ज्ञात होता है। सन् 1953 में राजकमल चौधरी ने गया कॉलेज से बी.कॉम. किया।

नार्मन एल. ने अपनी पुस्तक ‘मन’ में कहा है कि जब अभिभावक अथवा शिक्षक द्वारा यह प्रयास किया जाता है कि उनके सारे गुण अथवा अवगुण बच्चों में आरोपित हो जाएं और जैसे वे स्वयं हैं, वह बच्चा भी वैसा ही हो, तो यह बालक के विकास हेतु बहुत बाधक साबित होता है और ऐसा बच्चा या तो मूर्ख होता है या विद्रोही। शायद ये कथन राजकमल चौधरी के विषय मे लिखा गया था ,राजकमल मूर्ख और भोंदू तो नहीं हुए, विद्रोह और क्रांतिकारिता उनके स्वभाव में आई।

राजकमल मे छात्र जीवन से ही इतिहास की घटना तथा विज्ञान के सिद्धांत से कोई ठोस निष्कर्ष निकाल लेने की अपूर्व क्षमता थी। कुछ तो अपनी पारिवारिक विसंगति के कारण और कुछ सामाजिक कुप्रथाओं के कारण बचपन से ही राजकमल विद्रोही स्वभाव के थे। बहुत कम लोग जानते है की राजकमल चौधरी का अखिल भारतीय किसान सभा से भी जुड़ाव हुआ था।राजकमल चौधरी ग्लास मे चाय पिया करते थे |

जब राजकमल भागलपुर में रहते थे, तब शोभना नाम की एक तरुणी से उनका प्रगाढ़ स्नेह था। शोभना, किसी पुरातत्त्व अधिकारी की पुत्री थीं और मैथिल परिवार के धार्मिक संस्कार में पली-बढ़ी थीं। शोभना साथ राजकमल का स्नेह-सम्‍बन्‍ध पटना में ही अंकुरित हुआ था। मैथिली में राजकमल चौधरी की पहली रचना अक्टूबर, 1954 में प्रकाशित हुई। पहली प्रकाशित कविता है ‘पटनिया टट्टूक प्रति’ (वैदेही, फरवरी, 1955) और पहली प्रकाशित कथा है ‘अपराजिता’ (वैदही, अक्टूबर, 1954)।

और अंत मे …राजकमल जिन दिनों कॉलेज में पढ़ रहे थे उन दिनों कॉमर्स में मौखिकी परीक्षा भी होती थी। राजकमल चौधरी की मौखिकी वस्तुतः उनके निर्भीक एवं दुस्साहसी व्यक्तित्व तथा विलक्षण प्रतिभा का प्रमाण देती है। दरभंगा से प्रो.बी.के. सिंह परीक्षक आए थे। उन्होंने नाम राजकमल से नाम पूछा।

–मणींद्र स्वर्णफूल। नाम सुनकर उन्हें अचरज हुआ। वे बोले–कॉमर्स के छात्र! और नाम कवि जैसा! आप कविता भी लिखते हैं?–जी हां! कुछ लिख लेता हूं।–आपकी सबसे अच्छी कविता कौन है?–मेरी सारी कविताएं अच्छी होती हैं।–आपकी अंतिम कविता कौन है?–जी हां! यह मैं कह सकता हूं। पर मेरी अंतिम कविता आपको सुनने में बहुत वीभत्स लगेगी। इसलिए पहले उसकी भूमिका कह देता हूं।…यह जीवन क्या है?…

एक सिगरेट है! जब तक ताजगी रहती है, मनुष्य कश लेते रहते हैं!…यह जीवन एक प्याज है, जिसके छिलके का कभी अंत नहीं होता!…यही मेरी थ्योरी है! तो ऐसे थे हमारे राजकमल चौधरी उर्फ़ फुल बाबू

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