सामा चकेबा : चुगलखोरों के मुँह में आग लगाने की रात

उस दिन काकी फूल दीदी के साथ धान के खेत से खुरपी से मिट्टी खुरच कर ला रही थीं। मैंने पूछा तो हँसकर कहने लगी कि चुगलखोरों को बीच खेत में खड़ाकर उसका मुँह जलाने की तैयारी हो रही है!

ओह! मुझे याद आया–सामा चकेबा खेलने के दिन नजदीक आ रहे हैं। मैंने सोचा कि गाँव-घर की स्त्रियों को जो कमतर समझते हैं वे बड़ी भूल करते हैं। ये स्त्रियां भले ही परिवार के निर्वहन में अपने आप को पूरी तरह से झोंकी रहती हैं पर युग-परिवर्तन में इनकी भूमिका को गौण नहीं किया जा सकता। कहीं न कहीं इन्हीं की बहू-बेटियां जोर-ओ-जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद करती हैं–उन्हें ज्ञान चाहे जहाँ से मिले पर वे उर्जा यहीं से पाती हैं। खैर।

लंबे त्योहारों के बाद अब गाँव फिर से खेतों की ओर मुंह करके खड़ा हो गया है। जहाँ पकी फसल उनकी बाट जोह रही है। गाँव में अक्टूबर मध्य से नवंबर-दिसंबर तक का समय बड़े उत्साह का होता है। इसी बीच शरद रितु के सारे त्योहार संपन्न होते हैं और धान की कटाई शुरू की जाती है। धान तैयार करते न करते गेहूँ बोने का समय दस्तक देने लगता है और किसान बिना दम मारे खेतों की जुताई और बुआई में लग जाते हैं। यहाँ त्योहारों से इकट्ठा उर्जा बड़ा काम आता है। क्योंकि इन्हें बिना दम मारे धान की कटाई से लेकर गेहूँ की पहली पटवन होने तक निरंतर लगे रहना पड़ता है।

खेत और फसल का उच्चारण करने से मुझे मिट्टी की याद आ गई है। मिट्टी जो इनके जीवन में है। मिट्टी जो इनके शरीर में लगा हुआ है। और, मिट्टी ही जो इनका परिचय भी है। इन पंक्तियों को नोट करते हुए मैं हरिवंश राय बच्चन की इन काव्य-पंक्तियों को गुनगुनाने लगता हूँ कि मिट्टी का तन मिट्टी का मन क्षण भर जीवन मेरा परिचय! है तो यह संसार के सभी जीवों के लिए कि अंतत: सबको एक दिन मिट्टी में ही मिल जाना है पर जीवन भर मिट्टी से खेलने वाले और मिट्टी के ही सहारे इस जीवन को अंजाम तक पहुंचाने वाले असल में हमारे कृषक-समाज ही हैं।

जब सारे बड़े त्योहार बीत जाते हैं, छोटे-छोटे त्योहारों की श्रंखला तब भी बनी रहती है। जो न सिर्फ परंपरा और जीवन में उत्साह के बीज को बरकरार रखता है बल्कि जीवन के प्रति नजरिये का भी हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में करता रहता है।

सामा-चकेबा विशुद्ध रूप से स्त्रियों द्वारा मनाया जाने वाला एक ऐसा ही त्योहार है। इसमें किसी पुरूष का कोई हस्तक्षेप नहीं रहता। बुजुर्ग स्त्रियों से लेकर घर-परिवार की छोटी से लेकर बड़ी लड़कियां तक इसमें सम्मिलित रहती हैं और पर्व के खत्म हो जाने की रात तक अपने हाथों को एक सृजक के हाथों सा महसूसती करती रहती हैं। सारे पर्वों में यही एक पर्व ऐसा है जो उन स्त्रियों को भी जो हमेशा पर्दे में रहती हैं को एक ऐसी स्वतंत्रता प्रदान करता है कि वे खेत तक जा सके और सामा चकेबा सतभैंया आदि की मूर्तियों को अपने हाथों से गढ़ने के लिए वहां से मिट्टी खुरच कर ला सकें।

यह पर्व किसान जीवन में स्त्रियों की सहभागिता को भी बखूबी दर्शाने का कार्य करता है। किसान खेत में हैं। वे धान काट रहे हैं। खेत जोत रहे हैं। गेहूँ बो रहे हैं। किसान की पत्नी और बच्चियां आँगन में मिट्टी गूँथ रहीं हैं। मिट्टी की बनाई मूर्तियों में रंग भर रहीं हैं। यह पर्व हाथों को मिट्टी की मुलामियत महसूस करने का भी एक मौका देता है।

हालांकि यह एक सीमित क्षेत्र में मनाया जाने वाला पर्व है। खासकर मिथिला क्षेत्र में। लेकिन अन्य क्षेत्रों की स्त्रियों की तरह यहाँ की स्त्रियों में भी पर्दा प्रथा के नाम पर लंबा सा घूंघट है। बावजूद इसके उनके जीवन में लांक्षण की गुंजाइश रह जाती है। यह पर्व उन लांक्षण से मुक्ति के बाद लांक्षण लगाने वाले की सजा का मुकर्रर दिन होता है। यह एक ऐसा पर्व है जो स्त्रियों को रात के अंधेरे में घर से निकल कर खेत तक जाने और गीत गाने, खिलखिलाकर हँसने और चाहे तो ठूमके लगाने की स्वतंत्रता देता है।

लेकिन इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता को इस बात से रेखांकित किया जा सकता है कि यह स्त्रियों को सांकेतिक रूप से स्वयं के हाथों से उन्हें सजा देने की स्वतंत्रता देता है जो लांक्षण लगाकर उनकी जिंदगी को नारकीय बना देता है!

-Mithlesh kumar ray

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